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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति २०७ है। इन्होंने जनपद-प्रान्त, विषय-जिला, मण्डल-तहसील, पुर–नगर और ग्राम इनकी शासन प्रणाली संक्षेपमें बतलायी है । राजाको एक परिषद् होनी चाहिये, जिसका राजा स्वयं सभापति हो और यही परिषद् विवादों-मुकदमोंका फैसला करे । परिषद्के सदस्य राजनीति के पूर्ण ज्ञाता, लोभ, पक्षपातसे रहित और न्यायी हों। वादी एवं प्रतिवादीके लिये अनेक प्रकारके नियम बतलाते हुए कहा है कि जो अपना मुकदमा दायर कर समयपर उपस्थित न हो, जिसके बयानमें पूर्वापर विरोध हो, जो वादी या प्रतिवादी बहस द्वारा निरुत्तर हो जाय या स्वयं प्रतिवादीको छलसे निरुत्तर कर दे वह सभा द्वारा दण्डनीय है । वाद-विवादके निर्णय के लिये लिखित, साक्षी, भुक्ति-अधिकार जिसका बारह वर्ष तक उपयोग किया जा सका है, प्रमाण है । न्यायालयमें साक्षीके रूपमें ब्राह्मणसे सुवर्ण और यज्ञोपवीतके स्पर्शन रूप शपथ; क्षत्रियसे शस्त्र, रत्न, भूमि, वाहनके स्पर्शनरूप शपथ; वैश्यसे कान, बाल, और काकिणीएक प्रकारका सिक्काके स्पर्शनरूप शपथ एवं शूद्रोंसे दूध, बीजके स्पर्शनरूप शपथ लेनी चाहिये। इसी प्रकार जो जिस कामको करता है, उससे उसी कार्य के छूनेकी शपथ लेनी चाहिये । इस तरह गुण-दोषोंका विचारकर यथार्थ न्याय करना चाहिये। राज्य व्यवस्थाके लिये अनेक धाराओंका निरूपण किया है । मुकद्द मे के निर्णयके लिये राजाको प्रत्यक्ष, अनुमान, लिखित, इन तीनोंप्रमाणोंका उपयोग करना चाहिये।' इस प्रकार तन्त्र--शासन व्यवस्था सम्बन्धी नियमोंका वर्णन सोमदेव सूरिने किया है। अवाय-नीतिका वर्णन करते हुए सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीकरण और संश्रय इन छः गुणोंका तथा राजनीतिके साम, उपदान, दण्ड और भेद इन चार अंगोंका विस्तार सहित प्रतिपादन किया है । सन्धि-"पणबन्धः सन्धिः" अर्थात् जब राजाको यह विश्वास हो जाय कि थोड़े ही दिनमें उसकी सैन्य संख्या बढ़ जायगी तथा उसमें अपेक्षाकृत बल अधिक आ जायगा तो वह क्षति स्वीकार कर भी सन्धि कर ले अथवा प्रबल राजासे आक्रान्त हो और बचावका उपाय न हो तो कुछ भेंट देकर सन्धि कर ले। विग्रह-"अपराधो विग्रहः' अर्थात् जब अन्य राजा अपराध करे, राज्यपर आक्रमण करे या राज्यकी वस्तुओंका अपहरण करे तो उस समय उसे दण्ड देनेकी व्यवस्था करना, विग्रह है। विग्रहके सपय राजाको अपनो शक्ति, कोश ओर बल --सेनाका अवश्य विचार करना चाहिये। १. नाविचार्य कार्य किमपि कुर्यात् प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथावस्थितवस्तुव्यवस्थापनहेतुविचारः । -नीति वा० वि० स० सू० १-२ २. सन्धिविग्रहयानासनसंश्रयद्वधोभावाः षाड्गुण्यं ॥-नीति० वा० सू० ४५ अष्टशाखं चतुर्मूलं षष्टिपत्रं द्वयेस्थितम् । षट्पुष्पं त्रिफलं वृक्षं यो जानाति स नीतिवान् । -यशस्तिलक आ० ३ श्लो० २५९
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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