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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति २०५ स्वाद नहीं आ सकता है। कोशकी वृद्धि और संचयके समय रस और धान्यके संग्रहपर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। आय-व्यय-की व्यवस्था करने के लिये पाँच प्रकारके अधिकारी नियुक्त करने चाहिये, जिनके नाम आदायक, निबन्धक, प्रतिबन्धक, नीवीग्राहक और राजाध्यक्ष बताये हैं।' आदायकका कार्य दण्ड आदिके द्वारा प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करना; निबन्धकका कार्य विवरण लिखना; प्रतिबन्धकका रुपये देना; नीवीग्राहकका भाण्डारमें रुपये रखना और राजाध्यक्षका कार्य सभी आय-व्ययके विभागोंका निरीक्षण करना होता है। राज्यकी आमदनी व्यापार, कर, दण्ड आदिसे तो करनी चाहिये, पर विशेष अवसरोंपर देवमन्दिर, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका संचित धन, वेश्याओं, विधवा स्त्रियों, जमीन्दारों, धनियों, ग्रामकूटों, सम्पन्न कुटुम्बों एवं मंत्री, पुरोहित, सेनापति, प्रभृति अमात्योंसे धन लेना चाहिये ।' व्यापारिक उन्नति के लिये बताया गया है कि जिस राज्यमें कृषि, व्यापार और पशु पालनको उन्नति नहीं होतो वह राज्य नष्ट हो जाता है। राजाको अपने यहाँके मालको बाहर जानेसे रोकनेके लिये तथा अपने यहाँ बाहरके मालको न आने देने के लिये अधिक कर लगाना चाहिये । अपने यहाँ व्यापारकी उन्नतिके लिये राजाको व्यापारिक नीति निर्धारित करना, यायायातके साधनोंको प्रस्तुत करना एवं वैदेशिक व्यापारके सम्बन्धमें कर लगाना या अन्य प्रकारके नियम निर्धारित करने चाहिये । राज्यको आर्थिक उन्नतिके लिये वाणिज्य और व्यवसायको बढ़ाना, मालके आने-जानेपर कर लगाना प्रत्येक राजाके लिये अनिवार्य बताया है । युद्धनीति-का वर्णन करते हुए सोमदेव सूरिने बताया है कि सर्वप्रथम शत्रुको वशमें करनेके लिये नोतिका प्रयोग करना चाहिये। जब शत्रु कूटनीतिसे वशमें न हो तो उसके साथ वीरतापूर्वक युद्ध करना चाहिये । कभी-कभी बुद्धिमान राजा अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा बलवान् शत्रुको भी वशमें कर लेते हैं। जिस कार्यको सहस्रोंकी तादादमें एकत्रित चतुरंग सेना नहीं कर पाती है, उसीको प्रज्ञाके बलसे नृपति कर लेता है । युद्धके लिये जाते समयकी व्यवस्थाका वर्णन करते हुए बताया है कि राजाको दुर्गमें जल और खाद्य पदार्थोकी व्यवस्था कर दुर्गसे आगे शत्रुके साथ युद्ध करना चाहिये, जिससे समय पड़नेपर जल और खाद्य पदार्थोंका उपयोग १. आदायकनिबन्धकप्रतिबन्धकनोवीग्राहकराजाध्यक्षाः करणानि ।-नीति० अ० सू० ४९ २. देवद्विजवणिजां धर्माध्वरपरिजनानुपयोगिद्रव्यभागैराढ्य विधवानियोगिग्रामकूटगणिकासंघ पाखण्डिविभवप्रत्यादानैः समृद्धथौरजनपदद्रविणसंविभागप्रार्थनैरनुपक्षयश्रीका मंत्रिपुरोहित सामन्तभूपालानुनयग्रहागमनाम्यां क्षीणकोशः कोशं कुर्यात्-नी० को० सू० १४ ३. कृषिः पशुपालनं वाणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् । वार्तासमृद्धो सर्वाः समृद्धयो राज्ञः ॥ शुल्कवृद्धिर्बलात्पण्यग्रहणं च देशान्तरभाण्डानामप्रवेशे हेतुः ॥ -नीति वा० वार्ता स० सू० १, २, ११ भूम्यर्थ नृपाणां नयो विक्रमश्च न भूमित्यागाय ।। बुद्धियुद्धेन परं जेतुमशक्तः शस्त्रयुद्धमुपयुज्येत् ।। न तथेशवः प्रभवन्ति यथा प्रज्ञावतां प्रज्ञाः । प्रज्ञा ह्यमोघं शस्त्रं कुशलबुद्धीनां ॥ -नीति० युद्ध स० सू० ३, ४, ५, ८
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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