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________________ २०२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान की ओर से समस्त अधिकार प्राप्त हों और जो अन्य राज्यमें अपने राज्यकी अभिवृद्धिके लिये समस्त साध्य-प्रयत्न स्वतन्त्र होकर कर सके वह निसृष्टार्थ; जो केवल अपने राजाकी बातको ही कह सके, अन्य अपनी ओरसे कुछ करने या कहनेका अधिकारी न हो वह परिमितार्थ एवं जो राज्यके लिखित सन्देशको अन्य राजाको पढ़कर सुनावे और जो लिखित राजाज्ञा प्राप्त किये बिना कुछ भी कार्य करनेका अधिकारी न हो वह शासनहर कहलाता है । प्रधान राजदूत निसृष्टार्थको ही माना गया है । यद्यपि इसको भी राज्यका आदेश कार्य करनेके लिये प्राप्त करना आवश्यक होता है, तो भी यह दौत्य कार्य में स्वतन्त्र ही रहता है । सेना विभाग का निरूपण करते हुए बताया गया है कि राज्यको सुरक्षित रखने एवं शत्रुओंके आक्रमणोंसे बचने के लिये एक सुदृढ़ और बहुत बड़ी सेनाकी आवश्यकता है। यह विभाग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बताया गया है, राज्यकी आयका अधिकांश भाग इसमें खर्च होना चाहिये । इस विभाग की आवश्यक सामग्री एकत्रित करने एवं सेना सम्बन्धी व्यवहारके संचालनके लिये एक अध्यक्ष होता है, जिसे सेनापति या महाबलाधिकृत कहा गया है । गजबल, अश्वबल, रथबल और पदातिबल ये चार शाखाएँ सेनाकी बतायी हैं। इन चारों विभागोंके पृथक् पृथक् अध्यक्ष होते हैं, जो सेनापतिके आदेशानुसार कार्य करते हैं । चारों प्रकारकी सेना में गजबल सबसे प्रधान बताया है, क्योंकि एक-एक सुशिक्षित हाथी सहस्रों योधाओंका संहार करने में समर्थ होता है । शत्रु के नगर को ध्वंस करना, चक्रव्यूह तोड़ना, नदी, जलाशय आदि पर पुल बनाना एवं अपनी सेनाको शक्तिको दृढ़ करने के लिये व्यूह रचना करना आदि कार्य भी गजबलके हैं । गजबलका निर्वाचन बड़ी योग्यता और बुद्धिमत्ताके साथ करना चाहिये । मन्द, मृग, संकीर्ण और भद्र इन चार प्रकारको जातियोंके हाथी तथा ऐरावत, पुण्डरीक, कामन कुमुद, अञ्जन, पुष्पदन्त, सार्वभौम और सुप्रतीकान इन आठ कुलोंके हाथियोंको ही ग्रहण करना इस बलके लिये आवश्यक है । गजोंके चुनावके समय जाति, कुल, वन और प्रचार इन चारों बातों के साथ शरीर, बल, शूरता और शिक्षापर भी ध्यान रखना आवश्यक है। अशिक्षित गजबल राजाके लिये धन और जन का नाशक बताया गया है। अश्वबलकी शक्ति भी सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी गयी है, इसे जंगम सैन्यबल बताया है । इस सेना द्वारा दूरवर्ती शत्रु भी वशमें हो जाता है; शत्रुको बढ़ी-चढ़ी शक्तिका १. द्रविणदानप्रियभाषणाभ्यामरातिनिवारणेन यदिहतं स्वामिनं सर्वावस्थासु बलोसंवृणोतीति बलम्।-नोति० वा० बलस० सू० १ २. बलेषु हस्तिनः प्रधानमङ्ग स्वरवयवैरष्टयुधा हस्तिनो भवन्ति । -नीतिवा० बलस० सू०२ ३. हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञां यदेकोऽपि हस्ती सहस्रं योधयति न सीदती प्रहारसहस्रेणापि ।। सुखेन यानमात्मरक्षा रिपुपुरावमर्दनमरिव्यूहविघातो जलेषु सेन्तुबन्धा वचनादन्यत्र सर्ववि नोदहेतवश्चेति हस्तिगुणाः । नीतिवा० बलस० सू० ३, ६ । ४. जातिः कुलं वनं प्रचारश्च न हस्तिनां प्रधानं किन्तु शरीरं बलं शौर्य शिक्षा चदुचिता । सामग्रीसम्पत्तिः ॥ नीतिवा० बलस० सू० ४ । ५. अशिक्षिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहराः-नीति वा० बलस० सू० ५
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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