SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोमदेव का राजनैतिक विवेचन जैनधर्ममें जहाँ आत्मसुधार और आत्मशोधनकी ओर ध्यान दिया गया है, वहाँ लौकिक समस्याओंको सुलझानेका भी पूर्ण प्रयत्न किया है । इस धर्मके आचार्योंने केवल पारलौकिक कल्याणका निरूपण करनेवाले साहित्यका हो निर्माण नही किया है, किन्तु इस लोककी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक बातोंपर पूर्ण प्रकाश डालते हुए आध्यात्मिकताकी तरंगमें इस लोककी प्रत्यक्ष भौतिक-शारीरिक बातोंकी अवहेलना करना या उपेक्षा करना सर्वसाधारणके लिये असम्भव-सा है; अतः शारीरिक आवश्यकताओंसे सम्बद्ध विषयोंपर भी अपनी लेखनी चलायी है। सोमदेव सूरि व्यावहारिक जीवनोपयोगी विषयोंका निरूपण करनेवाले आचार्य है; यों तो इन्होंने आध्यात्मिक विषयोंका भी सूक्ष्म प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत निबन्धमें इनके राजनैतिक विचारोंपर प्रकाश डाला जायगा। सोमदेव सूरिने राजतन्त्रका निरूपण किया है। इनके मतानुसार शासनकी बागडोर ऐसे व्यक्तिके हाथमें होती है, जो वंश परम्परासे राज्यका सर्वोच्च अधिकारी चला आ रहा हो । राजा राज्यको स्थायी समझ कर सब प्रकारसे अपनी प्रजाका विकास करता है । राजाकी योग्यता और गुणोंका वर्णन करते हुए बताया गया है कि "जो मित्र और शत्रुके साथ शासन कार्य में समान व्यवहार करता है, जिसके हृदयमें पक्षपात या अपनेपनेका भाव नहीं रहता और जो निग्रह-दण्ड, अनुग्रह-पुरस्कारमें समानताका व्यवहार करता है, वह राजा होता है, राजाका धर्म दुष्ट, दुराचारी, चोर, लुटेरे, आदिको दण्ड देना एवं साधु, सत्पुरुषोंका यथोचित रीतिसे पालन करना है । सिर मुड़ाना, जटा धारण करना, व्रतोपवास करना राजाका धर्म नहीं है । वर्ण, आश्रम, धान्य, सुवर्ण, चाँदी, पशु आदिसे परिपूर्ण पृथ्वीका पालन करना राजा का कर्म राज्य है। राजाकी योग्यताके सम्बन्धमें सोमदेव सूरिने लिखा है कि राजाको शस्त्र और शास्त्रका पूर्ण पंडित होना आवश्यक है। यदि राजा शास्त्रज्ञान रहित हो और शस्त्र विद्यामें प्रवीण हो तो भी वह कभी न कभी धोखा खाता है तथा अपने राज्यसे भी हाथ घो बैठता है । जो शस्त्र विद्या नहीं जानता, वह भी दुष्टों द्वारा पराजित किया जाता है, अतएव पुरुषार्थी होनेके साथ-साथ राजाको शस्त्र, शास्त्रका पारगामी होना अनिवार्य है । मूर्ख राजासे १. योऽनुकूलप्रतिकूलयोरिन्द्रयमस्थानं स राजा-विद्यावृद्धिसमुद्देशः सू० १ २. राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः; न युक्तः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकम्___ विद्यावृद्धिसमुद्देशः, सू० २, ३ ३. वर्णाश्रमवती धान्यहिरण्यपशुकुप्यवृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी; राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्यम्-विद्यावृद्धिसमुद्देशः सू० ५, ४
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy