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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १९३ ईस्वी सन्की पहली शताब्दीके मालवा और सौराष्ट्रमें महाक्षत्रप उपाधिधारी शक राजाओंने राज्य उपस्थित किया था। इस उपाधिधारी राजाओंमें दो वंशके राजाओंका प्रभुत्व प्रधानरूपसे सौराष्ट्र पर रहा है। पहले राजवंशके कुषाण साम्राज्य स्थापित होनेसे पहले और दूसरे राजवंशने कुषाण राजवंशके साम्राज्यके नष्ट होनेके समय सौराष्ट्र पर अधिकार किया था । प्रथम राजवंशमें केवल दो राजाओंके सिक्के मिलते हैं। पहले राजाका नाम भूमक था । इसके दो तांबेके सिक्के उपलब्ध हुए हैं उनपर एक ओर सिंहकी मूत्ति, दूसरी ओर चक्र तथा एक ओर खरोष्ठी अक्षरोंमें "छहरदास छत्रपसभूमकस" और दूसरी ओर ब्राह्मी अक्षरोंमें "क्षयरातस क्षत्रपस भूमकस' लिखा है।' उपर्युक्त सिक्कोंमें जैन प्रतीक अंकित है, अतएव यह मानना असंगत नहीं कहा जा सकता है कि भूमिकस जैन था । इस राजा का उत्तराधिकारी क्षत्रप नहपान बताया गया है । जिनसेनाचार्यने इसका उल्लेख नरवाह नामसे किया है, इसका राज्यकाल ४२ वर्ष लिखा है। अनुमानतः यह ई० पू० ५८ में राज्याधिरूढ़ हुआ था। जैन शास्त्रोंमें इसका उल्लेख नरवाहन, नरसेन, नहवाण आदि रूपों में किया गया है। इसका एक विरुद भट्टारक आया है, जिससे इसका जैन होना स्वतः सिद्ध है । नहपानके सिक्के बहुलतामें अभी तक नहीं मिले है । कनिंघम साहबको इस राजाका तांबेका एक सिक्का मिला था। इसपर एक ओर वज्र और ब्राह्मी अक्षरोंमें नहपानका नाम तथा दूसरी ओर घेरेमें अशोकवृक्ष है । अतएव भूमिकस और नहपानके सिक्के जैन हैं । __ नहपानके राजत्व कालके अतिम वर्षों में आन्ध्रवंशी गौतमीपुत्र शातकर्णीने शकोंके पहले क्षत्रप वंशका अधिकार नष्ट कर दिया था और नहपानके चाँदीके सिक्कोंपर अपना नाम लिखवाया था। ऐसे सिक्कोंपर एक ओर सुमेरु पर्वत और उसके नीचे साँप तथा ब्राह्मी अक्षरोंमें 'राजो गोतिमि पुत्रस सिरि सातकणिस' लिखा है। दूसरी ओर उज्जयिनी नगरीका चिन्ह है। इस राजाने स्वयं अपने भी सिक्के बनवाये थे; इन सिक्कोंपर इसने एक ओर राजाका मुख और ब्राह्मी अक्षरोंमें 'राजो गोतिमि पुत्रस सिरियनसातकणिस' लिखा है। दूसरी ओर उज्जयिनी नगरीका चिन्ह सुमेरु पर्वत, साँप और दाक्षिणत्व के ब्राह्मी अक्षरोंमें" 'शाष गोतम पुत्रष हिषयत्र हातकणिष' लिखा है । गौतमीपुत्र शातकर्णीके सिक्कोंमें जैन प्रतीक हैं। यहाँ राजा पहले वैदिक धर्मानुयायी था, परन्तु अपने पिछले जीवनमें इसने जैनधर्म ग्रहण कर लिया था। नासिकके शिलालेखमें इसे अश्कि, अश्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ और अकरावन्तीका शासक बताया है । इसका राज्यकाल ई० १००-४४ है । इसका जैन गृहस्थके व्रतोंका पालन करनेका भी उल्लेख मिलता है। 1. Rapson, catalogue of India coins in the British museum. Andhras. western Ksatrapas etc. pp. 63-64 Nos 237-42. 2. Journal of the Bihar and Orissa Research society Vel, 16, P. 289 ३. राजपूताने का इतिहास, भाग १, पृ० १०३ ४. भरुयच्छेणयरे नहवाहणो सभा कोससमिद्धो-आवश्यकसूत्र भाष्य । ५. संक्षिप्त जैन इतिहास, द्वितीय भाग, द्वितीय खंड, पृ० ६१-६६ । २५
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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