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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १६७ और मनरंगने भी उपयुक्त तिथि ही बतलायी है। ज्योतिषकी प्रक्रिया द्वारा भी यह तिथि शुद्ध प्रतीत होती है। क्योंकि नक्षत्र और तिथिका समन्वय यथार्थ है । भगवान् अभिनन्दन स्वामीका ज्ञानकल्याणक तिलोययपण्णत्ति के अनुसार कात्तिक शुक्ला पञ्चमी' पुनर्वसु नक्षत्रमें अपराह्नकालमें हुआ है। उत्तरपुराणमें पौष शुक्ला चतुर्दशी की सन्ध्यामें केवलज्ञानको उत्पत्ति बतलायी गयी है। इस दिन भी पुनर्वसु नक्षत्र था। वृन्दावन और मनरंगने पौषशुक्ला चतुर्दशीको हो ज्ञानकल्याणकी तिथि बतलायी है । ज्योतिषकी सरणि द्वारा विचार करनेसे कार्तिक शुक्ला पञ्चमीको पुनर्वसु नक्षत्र नहीं आता है, किन्तु इस तिथिको उत्तराषाढ़ा नक्षत्र होना चाहिए। क्योंकि कार्तिक कृष्णा प्रतिपदाको भरणी नक्षत्र था। भरणीसे गणना करनेपर कात्तिक शुक्ला पञ्चमी उत्तराषाढाको पड़ती है, अतः यह तिथि अशुद्ध है। पौषशुक्ला चतुर्दशीको पुनर्वसु नक्षत्र अवश्य रहता है क्योंकि पौषी पूर्णिमाको पुष्य नक्षत्रका आना आवश्यक है, अतः पौष शुक्ला चतुर्दशी तिथि शुद्ध है । यही अभिनन्दन भगवान्के ज्ञानकल्याणक की तिथि है। तिलोयपण्णत्ति में 'कत्तिय सुक्के' और 'पंचम्मि' इन दोनों पदोंका समन्वय पुनर्वसु नक्षत्र के साथ नहीं होता है। अतः कात्तिक शुक्ला पञ्चमीकी मान्यता भ्रान्त है। इन भगवान् के निर्वाणकल्याणकका होना तिलोयपण्णत्तिमें वैशाख शुक्ला सप्तमी को पूर्वाह्नकालमें पुनर्वसु नक्षत्रके रहनेपर बताया गया है। उत्तरपुराणमें वैशाख शुक्ला' षष्ठीके दिन प्रातःकालके समय पुनर्वसु नक्षत्रके रहते हुए निर्वाणका होना कहा है । वृन्दावन और मनरंगने षष्ठी तिथिको ही निर्वाण माना है। ज्योतिषके गणित द्वारा विचार करनेपर प्रतीत होता है कि नक्षत्र और तिथिका समन्वय वैशाख शुक्ला षष्ठीको होता है । सप्तमी तिथिको पुनर्वसुकी स्थिति नहीं आती है, किन्तु पुष्य हो जाता है । कारण यह है कि वैशाखी पूणिमा विशाखा नक्षत्रको पड़ती है । षष्ठीको पुनर्वसुके रहनेपर ही पूणिमाको विशाखा आ सकेगा। सप्तमीको पुनर्वसुकी स्थिति माननेपर पूर्णिमाको विशाखा नक्षत्र न पड़कर अनुराधा आ जायगा; जो गणितकी दृष्टिसे अशुद्ध है। अतः अभिनन्दन स्वामोका निर्वाण वैशाख शुक्ला षष्ठीको ही मानना युक्ति संगत है। पंचम तीर्थकर सुमतिनाथ स्वामीका गर्भकल्याणक उत्तरपुराणके अनुसार श्रावण शुक्ला द्वितीयाके दिन मघा नक्षत्रमें सम्पन्न हुआ है। इसी तिथिका उल्लेख वृन्दावन और मनरंगने १. कत्तिय सुक्के पंचमी अवरण्हे पुणब्वसुम्गि णक्खत्तै । उग्गवणे अभिणंदणजिणस्म संजाद सव्वस्सगयं ॥ -तिलोय० ४-६८१ २. सिते पौषे चतुर्दश्यां सायाह्न भेऽस्य सप्तमे। -उत्तर० ५०-५६ ३. वइसाह सुक्कसत्त मि पुव्वले जम्मभम्मि सम्मेदे । दससयमहेसिसहिदो गंदणदेवो गदो मोक्खं ।। -तिलोय० ४-११८८ ४. मुनिभिर्बहुभिः प्राहे प्रतिमायोगवानगात् । मे सिते सप्तमे षष्ठयां वैशालेऽयं परं पदम् ॥ उत्तर० ५०-६६ ५. मघाया श्रावणे मासि दृष्ट्वा स्वप्नान् गजादिकान् । ५१ प० २१
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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