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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान उत्तर पुराण में तीसरे तीर्थकर संभवनाथ भगवान्‌का गर्भकल्याणक फाल्गुन शुक्ला अष्टमी' मृगशिरा नक्षत्र माना गया है। हिन्दी कवियोंमें वृन्दावनने इन भगवान्‌ के गर्भकल्याणककी यही तिथि तथा मनरंगने फाल्गुन कृष्णा' अष्टमी बतलायी है । ज्योतिष की दृष्टि विचार करनेपर फाल्गुन शुक्ल पक्षको अष्टमी तिथि शुद्ध है; क्योंकि फाल्गुनकी पूर्णिमाको सूर्योदय कालमें पूर्वा फाल्गुनी और चन्द्रोदय कालमें उत्तरा फाल्गुनी या पूर्णिमाके सूर्योदय और चन्द्रोदय दोनों ही समयोंमें उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र आता है । उपर्युक्त स्थिति में अष्टमीको मृगशिरा नक्षत्र के होनेपर पूर्णिमाको उत्तराफाल्गुनी आ जाता है । अतएव कृष्ण पक्ष की अष्ट अशुद्ध है और शुक्लपक्षकी अष्टमी गर्भकल्याणककी शुद्ध तिथि है । १६४ तिलोय पण्णत्त में संभवनाथ भगवान्‌का जन्मकल्याणक मार्गशीर्ष पूर्णिमा ज्येष्ठा नक्षत्र बताया गया है । उत्तर पुराण में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा मृगशिर नक्षत्र में भगवान्का जन्म बताया गया है | हिन्दी कवियोंमें वृन्दावन और मनरंग दोनोंने कार्तिकी पूर्णिमा" ही भगवान् - का जन्म दिन माना है । अब यह विचार करना है कि कार्तिकी और मार्गशीर्षी पूर्णिमाओं में से कौन सी तिथि भगवान् के जन्मकल्याणककी है । तिलोयपण्णत्ति में प्रतिपादित ज्येष्ठा नक्षत्र मार्गशीर्षी पूर्णिमाको कभी नहीं हो सकता है । क्योंकि इस तिथिको नियमतः मृगशिर नक्षत्र आता है | कार्तिक पूर्णिमाको कृत्तिका नक्षत्र रहना चाहिए, मृगशिर नहीं । अतः नक्षत्र और तिथियोंका समन्वय दोनों मान्यताओंमेंसे एक भी मान्यता के साथ नहीं है । ज्यौतिष शास्त्रमें एक नियम यह भी आता है कि गर्भकाल से शिशु उत्पत्तिका समय दस नाक्षत्र मास होता है अर्थात् गर्भ की पुष्टि २७० दिनोंमें होती है प्रायः जो नक्षत्र गर्भ स्थिति कालमें रहता है, वही उत्पत्ति समय में भी । मृगशिर नक्षत्र से २७० नक्षत्र दिन कार्तिकी पूर्णिमाको पूर्ण नहीं होते हैं, बल्कि मार्गशीर्ष पूर्णिमाको पूर्ण होते हैं । इस पूर्णिमाको मृगशिर नक्षत्र भी आ जाता है । अतः भगवान् संभवनाथका जन्मकल्याणक मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमाको मृगशिर नक्षत्र में मानना चाहिए | तिलोयपण्णत्ति में 'जेट्ठा रिक्खम्मि' पाठ अशुद्ध है। इसके स्थान 'मिग्गरिक्खम्मि, पाठ होना चाहिए। या तो यह पाठ किसी अन्य प्रतिमें होगा अथवा किसी प्रतिलिपिकर्ताको कृपासे 'मिग्गरिक्खम्मि’के स्थानपर 'जेट्टारिक्खम्मि' पाठ हो गया होगा, जो अशुद्ध है । उत्तर पुराण में 'नवमे मासि' पाठ है । यहाँ यह गणना चैत्रसे लेनी चाहिए। इस सम्बन्धमें एक बात । १. शुक्ल फाल्गुन जाष्टम्यां स्वप्नान् षोडश पंचमे । प्रभातसमयेऽपश्यन्नक्षत्रे सुकृतोदयात् । - उत्त० ४९-१६ २. फागुन असित परव अष्टमीको गरभस्थिति नाथ । – मनरंग : सत्यार्थयज्ञ ३. सावित्थीए संभवदेवो य जिदारिणा सुसेणाए । मग्गसिर पुण्णिमाए जेट्टा रिक्खम्मि संजादो || तिलोय० ४-५२८ ४. नवमे मासि नक्षत्रे पंचमे सौम्ययोगगे । पौर्णमास्यामवापाय महमिन्द्रं त्रिविद्युतम् । उत्तर० ४९-१९ ५. कार्तिक सित पूनम तिथि जान । तीन ज्ञानजुत जनम प्रमाण ।। वृन्दावनकृत चौबीसी विधान
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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