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________________ १४८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान __ जैन सम्प्रदायके २४ तीर्थंकरोंमें से श्री ऋषभनाथने अष्टापद पर्वतसे, नेमिनाथने गिरनार पर्वतसे, वासुपूज्य स्वामीने चम्पापुरके समीपवर्ती पर्वतसे, महावीर स्वामीने पावापुरीसे और शेष बीस तीथंकरोंने श्रीसम्मेदशिखर ( पार्श्वनाथ हिल ) से निर्वाण लाभ किया है । सम्प्रतिने इन निर्वाण स्थानोंपर तथा अपने जन्मस्थान भावू-विराट एवं अपने कुटुम्बियोंके समाधिस्थानों पर शिलालेख खुदवाये हैं। इसने अपना प्रिय चिह्न हाथी प्रत्येक शिलालेखमें अङ्कित कराया है। हाथीके प्रिय होनेका कारण यह है कि प्रत्येक तीर्थकरकी माताके सोलह स्वप्नोंमें श्वेत हाथी प्रथम स्वप्न है । जैनग्रन्थोंमें यह भी बताया गया है कि सम्प्रतिके जन्मके पूर्व इसकी माताने भी श्वेत हाथीका स्वप्न देखा था, अतः इसे हाथीका चिह्न अत्यन्त प्रिय रहा । अशोकके नामसे प्रचलित चौदह शिलालेख सम्प्रतिके ही हैं । वर्णन निम्न प्रकार है। १-कालसी (शिलालेख, हाथी खुदा हुआ है)-आदिनाथ (ऋषभनाथ) तीर्थकरका मोक्ष स्थान अष्टापद पर्वत बताया है। प्राचीनकालका अष्टापद तो देवोंने नष्ट कर दिया है। सम्राट् प्रियदर्शिनके समयमें कालसी' ही अष्टापद माना जाता था; अतएव इसकी तलहटीमें शिलालेख सम्राट् प्रियदर्शिनने खुदवाया। २-जूनागढ़ ( गिरनारजी, शिलालेख और हाथी उत्कीणित है )-बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथका मोक्षस्थान गिरनार पर्वत बताया गया है। प्राचीन पर्वतकी तलहटी धीरे-धीरे हटकर वर्तमान गिरनार पर्वतके स्थान पर पहुंच गयी है। सम्राट् प्रियदर्शिनके समयमें यह तलहटी उसी स्थान पर थी, जिस पर यह शिलालेख अङ्कित है। हमारे इस कथनको पुष्टि सुदर्शन तालाबको प्रशस्तिसे भी होती है । इसमें बताया गया है कि यह तालाब गिरनार पर्वत की तलहटीमें बनवाया गया था। परन्तु आज यह गिरनारसे दूर पड़ता है। ३-धौली (शिलालेख, स्थूल हाथी अङ्कित है)-जैनागममें बीस तीर्थंकरोंको निर्वाण भूमि श्रीसम्मेदशिखर ( पार्श्वनाथ हिल ) को माना गया है। सम्राट् प्रियदर्शिनके समयमें १. यह स्थान संयुक्त प्रदेशके देहरादून जिलेमें लगभग डेढ़मील दक्षिणको ओर जमुना और ____टोसके संगम पर है । हाथीकी मूत्ति के नीचे 'गजतमो' लिखा है । २. गिरनारजीको तलहटीमें सुदर्शन नामका तालाब है, इसके पुनरुद्धार सम्बन्धी शिला लेखका पीटर्सन साहबने अनुवाद करते हुए कहा है कि इस तालाबको प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें विष्णुगुप्तने बनवाया था। इसके पश्चात् इसके चारों ओरकी दीवालें सम्राट अशोकके समयमें तुपस नामक सत्ताधारीने पहली बार सुधरवायी थी। तत्पश्चात् दूसरी बार पुनरुद्धार प्रियदर्शिन्के समयमें हुआ। इस कथनमें चन्द्रगुप्त, अशोक और प्रियदर्शिन् इन तीनों शासकोंके नाम आये हैं । अतएव अशोक और प्रियदर्शिन् ये दो भिन्न व्यक्ति हैं । प्रियदर्शिन् सम्प्रति ही था, जैनागममें इस नामसे इसका उल्लेख किया गया है । -जैनसिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण २ पृ० ११६, तथा भावनगरके संस्कृत, प्राकृत शिलालेख पृ० २०। ३. यह स्थान आजकल पुरी जिलेमें भुवनेश्वरसे सात मोल दक्षिण घोली नामक गांवके पास अश्वत्थामा पहाड़ीके नामसे प्रसिद्ध है । एक चट्टानपर ११ प्रज्ञापन खुदे है। हाथीके सामनेकी आधी मूत्ति कोरकर बनायी गयी है। छठे प्रज्ञापनके अन्तमें 'सेतों' शब्द भी भाया है।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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