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________________ जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १४७ पश्चात् बौद्ध संघमें चार करोड़ स्वर्ण देकर सम्प्रति राज्यासन पर प्रतिष्ठित हुआ था। इसने अशोकके दानको रोक दिया था, इसलिये बौद्ध लेखकोंने इसकी निन्दा की है, इसे लोभी, मदान्ध आदि कहा है। अशोकको मृत्यु के उपरान्त सम्प्रतिने पाटलीपुत्रके सिंहासनपर स्थित हो अपनी राज्य व्यवस्थाको सुदृढ़ किया । उसने युवराजकालमें ही काठियाबाड़ और दक्षिणापथको स्वाधीन कर लिया था। निशीथचूणिमें बताया गया है-"तेण सुरठ्ठविसयो अंधा दमिला य ओयविया" इसी सम्बन्धमें कल्पचूर्णिकारने लिखा है- “ताहे तेण संपइणा उज्जेणीआई कउं दक्खिणावहो सव्वो तत्थ ठिण्ण वि अज्जावितो" अर्थात् उस सम्प्रति नरेश ने समस्त दक्षिणापथको स्वाधीन कर लिया था । इस प्रकार पश्चिम और दक्षिण भारत राज्याभिषेक होनेके पहले ही युवराज अवस्थामें सम्प्रतिके आधीन थे। पूर्वी भारत मगधके राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त होनेके पश्चात् सम्प्रतिके अधिकार में आगा। मुनिश्री कल्याणविजयजीने 'वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना' नामक पुस्तकमें अनुमान किया है कि सम्प्रतिके पूर्व पूर्वीय भारतका कुछ भाग अशोकके द्वितीय पुत्र दशरथके आधीन था। कुणालके अन्धा होनेके उपरान्त जबतक अवन्तिका शासन सम्प्रतिको नहीं मिला, तब तक अशोकका यही द्वितीय पुत्र दशरथ अवन्तिका शासक रहा होगा। मुनिजीके इस अनुमानकी पुष्टि दशरथके नामके उपलब्ध शिलालेखोंसे भी हो जाती है। सम्प्रतिने अपने राज्यमें अपनी कीत्तिको स्थायी रखने के लिये शिलालेख और स्तम्भ लेख खुदवाये तथा अनेक स्तूपोंका निर्माण कर जनताका कल्याण किया। यह इतना निरभिमानी था कि इसने अपना पूरा नाम किसी भी शिलालेख या स्तम्भ लेखमें उत्कीणित नही कराया। केवल महाराज प्रियदर्शिनके नामसे सभी लेख खदवाये हैं। भ्रमवश लोगोंने अशोक को प्रियदर्शिन मान लिया है, जिससे सम्प्रतिकी सारी कृतियाँ आज अशोककी मानी जाने लगी हैं। अशोकके नामके जितने शिलालेख प्रचलित है, उनमें दो-तीनको छोड़ शेष सभी सम्प्रतिके हैं। सम्प्रतिने अपने प्रिय अहिंसा धर्म के प्रचारके लिये जैनमान्यताके अनुसार धर्माज्ञाएँ प्रचलित की हैं। महाराज सम्प्रतिने प्रमुख चौदह शिलालेखोंको तीर्थंकरोंके निर्वाण स्थान, अपने कुटुम्बियोंके मृत्यु स्थान और अपने जन्म स्थानपर खुदवाया है । उसका विश्वास था कि निर्वाणस्थान पर यात्राके लिये आनेवाले यात्री इन धर्माज्ञाओंसे लाभ उठायेंगे तथा संसारसे विरक्त हो, अपना कल्याण करेगें। १. गङ्गाम्बुभाररुचिरां चतुरम्बु राशि-वेलाविलासवसनां मलयावतंसाम् । दत्त्वाऽखिलां वसुमती स समाससाद, पुण्यं प्रमाणकलनारहितं हिताय । प्रख्यातषण्णवति कोटिसुवर्णदाने, याते दिवं नरपतावथ तस्य पौत्रः । शेषेण मन्त्रिवचसा क्षितिमाजहार, स्पष्टक्रयी कनककोटिचतुष्टयेन ।। x x x अवदान कल्प ल० ५० ७४ श्लो० ११-१२ एष राज्ञोऽशोकस्य मनोरथो बभूव कोटिशतं भगवच्छासने दानं दास्यामीति तेन षष्णवतिकोटयो दत्ता यावद् राज्ञा प्रतिषिद्धाः, तदभिप्रायेण राज्ञा पृथिवी संघे दत्ता यावदमात्यैश्चतस्रः कोटयो भगवच्छासने दत्त्वा पृथ्वी निष्क्रीय संपदी राज्य प्रतिष्ठापितः । -दिव्यावदान २९
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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