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________________ और संवर्द्धित भी किया। मध्यप्रदेश की प्रज्ञान-स्थली सागर में मुनिराज का प्रथम चातुर्मास, तपश्चर्या की कर्मस्थली बना और यहीं से शुरू हुआ आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा का वह अर्थ जिसने प्रत्येक कालखण्ड में नये-नये अर्थ गढ़े और संवेदनाओं की समझ को साधना की शैली में अन्तर्लीन कर तात्विकं परिष्कार के नव-बिम्बों के सतरंगी इन्द्रधनुष को आध्यात्मिक क्षितिज पर प्रतिष्ठित किया। आगामी वर्षों में मुनि ज्ञानसागर जी ने जिनवाणी के आराधकों से स्थापित किया एक सार्थक संवाद ताकि आगम-ग्रन्थों में निबद्ध रहस्यों को सामान्य जनों तक बोधगम्य भाषा और शैली में सम्प्रेषित किया जा सके। सरधना, शाहपुर, खेकड़ा, गया, रांची, अम्बिकापुर, बड़ागांव, दिल्ली, मेरठ, अलवर, तिजारा, मथुरा आदि स्थानों पर विद्वत्-संगोष्ठियों के आयोजनों ने बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के जहां एक ओर उत्तर खोजे वहीं दूसरी और शोध एवं समीक्षा के लिए नये सन्दर्भ भी परिभाषित किये। अनुपलब्ध ग्रन्थों के पुनर्प्रकाशन की समस्या को इस ज्ञान-पिपासु ने समझा परखा और सराहा। इस क्षेत्र में गहन अभिरूचि के कारण सर्वप्रथम बहुश्रुत श्रमण परम्परा के अनुपलब्ध प्रामाणिक शोध-ग्रन्थ स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सर्जित साहित्य सम्पदा, "तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा" (चारों भाग) के पुनर्प्रकाशन की प्रेरणा की, जिसे सुधी श्रावकों ने अत्यल्प समयावधि में परिपूर्ण भी किया। पुनर्प्रकाशन यह अनुष्ठान श्रमण-परम्परा पर काल के प्रभाव से पड़ी धूल को हटा कर उन रत्नों को जिनवाणी के साधकों के सम्मुख ला रहा है जो विस्मृत से हो रहे थे। पूज्य गुरूदेव की मंगल प्रेरणा से प्राच्य श्रमण भारती, मुज़फ्फरनगर (उ.प्र.) के अवधान में पाचास से अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन/पुनर्प्रकाशन, लगभग चार वर्षों की अल्पावधि में हुआ है, जिसमें तिलोयपण्णती, जैनशासन, जैनधर्म आदि अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस क्रम को गति देते हुए पूज्य उपाध्याय श्री ने आधुनिक कालखण्ड में भुला दिये गये संतों एवं विद्वानों के कृतित्व से समाज को परिचित कराने का भी गुरूकार्य किया है, जिसकी परिणति स्वरूप आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ है, जिसके प्रकाशन से एक ओर विस्मृत से हो रहे उस अत्यन्त पुरातन साधक से समाज का परिचय हुआ, जिसने सम्पूर्ण भारत में दिगम्बर श्रमण परम्परा को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अभिवृद्धि करने का गुरू-कार्य किया था, तो दूसरी ओर उनकी समृद्ध एवं ष्टशस्वी शिष्य परम्परा से भी समाज को रू-बरू कराया। सुप्रसिद्ध जैनदर्शन-विद स्व. पं. महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्य की स्मृति में एक विशाल स्मृति-ग्रन्थ के प्रकाशन की प्रेरणा कर मात्र एक जिनवाणी-आराधक का गुणानुवाद ही नहीं हुआ, प्रत्युत नयी पीढ़ी को उस महान साधक के अवदानों से परिचित भी कराने का अनुष्ठान पूर्ण हुआ। इस
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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