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________________ झा, पं. बलभद्र जी पाठक, पं. जीवनलाल जी अग्निहोत्री आदि विद्वानों की सान्निधि में न्याय, व्याकरण एवं सिद्धान्त के अनेक ग्रन्थों का चिन्तन-मनन भी सफलतापूर्वक किया। क्षुल्लक गुणसागर जी की साधना यात्रा ललितपुर, सागर तथा जबलपुर में इस युग के महान सन्त पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की पावन सान्निधि के मध्य धवला की तत्त्व सम्पदा के सागर में अवगाहन करने में समर्पित हुई। दार्शनिक अवधारणों की पौर्वात्य पृष्ठभूमि की गहरी समझ के साथ-साथ क्षुल्लक जी ने पाश्चात्य चिन्तकों के विचारों को भी आत्मसात् किया एवं भाषा तथा साहित्य के ग्रन्थों का भी अध्ययन किया ताकि अपने चिन्तन का नवनीत जनमानस के सम्मुख आसान और बोधगम्य भाषा में वस्तुपरकता के साथ पहुँचाया जा सके। क्षुल्लक जी का निस्पृही, विद्यानुरागी मन जैन दर्शन के गूढ रहस्यों के सन्धान में रत रहा और प्रारम्भ हुआ संवाद का एक नया चरण। चाहे चंदेरी की सिद्धान्त-वाचना हो या ललितपुर की न्याय-विद्या-वाचना या मुंगावली की विद्वत्संगोष्ठी या फिर खनियांधाना की सिद्धान्त-वाचना, प्राचीन अवधारणाओं के नये और सरल अर्थ प्रतिपादित हुए, परिभाषित हुए और हुए संप्रेषित भी जन-जन तक। यह तो प्रज्ञान का प्रभाषित होता वह पक्ष था, जिसकी रोशनी से दिग्-दिगन्त आलोकित हो रहा था। पर दूसरा-तीसरा....चौथा.... न जाने और कितने पथ/आयाम, साथ-साथ चेतना की ऊर्ध्वगामिता के साथ जुड़ रहे थे, साधक की प्रयोग धर्मिता को ऊर्जस्विता कर रहे थे - शायद साधक भी अनजान था अपने आत्म-पुरूषार्थी प्रक्रम से। चाहे संघस्थ मुनियों, क्षुल्लकों, ऐलकों की वैयावृत्ति का वात्सल्य पक्ष हो या तपश्चरण की कठिन और बहुआयामी साधना, क्षुल्लक गुणसागर की आत्म-शोधन-यात्रा अपनी पूर्ण तेजस्विता के साथ अग्रसर रही, अपने उत्कर्ष की तलाश में। . महावीर जयन्ती के पावन प्रसंग पर इकत्तीस मार्च उन्नीस सौ अठासी को क्षुल्लक श्री ने आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज से सोनागिर सिद्धक्षेत्र (दतिया म.प्र.) में मुनि धर्म की दीक्षा ग्रहण की और तब आविर्भाव हुआ उस युवा, क्रान्तिदृष्टा तपस्वी का जिसे मुनि ज्ञानासागर के रूप में युग ने पहचाना और उनका गुणानुवाद किया। साधना के निर्ग्रन्थ रूप में प्रतिष्ठित इस दिगम्बर मुनि ने जहाँ आत्म-शोधन के अनेक प्रयोग किए, साधना के नये मानदण्ड संस्थापित किए, उदात्त चिन्तन की ऊर्जस्वी धारा को प्रवाह मानकर तत्वज्ञान को नूतन व्याख्याओं से समृद्ध किया वहीं पर अपनी करूणा, आत्मीयता और संवेगशीलता को जन-जन तक विस्तीर्ण कर भगवान महावीर की "सत्वेषु मैत्री" की अवधारणा को पुष्पित, पल्लवित x
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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