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________________ १२० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान अनिच्छापूर्वक प्रतिपक्षी राजाओंके साथ युद्ध करना पड़ा उसी प्रकार कुमारपालको भी। आठ दश वर्षके युद्धोपरान्त जीवनके शेष भागमें जिस प्रकार अशोकने प्रजाकी नैतिक और सामाजिक उन्नतिके लिए राजाज्ञाएँ प्रचारित की और राज्यमें शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाए रखने का यत्न किया उसी प्रकार कुमारपालने भी। कुमारपालने अशोकके समान ही प्रजाको धार्मिक और नैतिक बनानेका श्लाघनीय प्रयत्न किया है । निःसन्देह कुमारपाल अपने अन्तिम जीवनमें श्रमणोपासक था। उसने श्रावकके द्वादश व्रतोंका पूर्णतया आचरण किया है। सोमप्रभाचार्य और यशपालकी रचनाओंसे स्पष्ट अवगत होता है कि कुमारपालने वि० सं० १२१६ में हेमचन्द्राचार्यके पास सकल जन समक्ष जैनधर्मकी गृहस्थ दीक्षा धारण की थी और निम्नलिखित प्रतिज्ञाएं ग्रहण की थीं १. राज्य रक्षाके निमित्त युद्धके अतिरिक्त यावज्जीवन किसी प्राणीको हिंसा न करना। २. आखेट-शिकार न खेलना। ३. मद्य-मांसका सेवन नहीं करना । ४. प्रतिदिन जिन प्रतिभाकी पूजा-अर्चना करना। ५. हेमचन्द्राचार्यका पद-वन्दन करना । ६. अष्टमी और चतुर्दशीके दिन सामायिक और प्रोषध आदि विशेष व्रतोंका पालन करना। ७. रात्रि-भोजन न करना । ८. स्वदारसन्तोष व्रत धारण करना और परस्त्रीका त्याग करना । ९. वेश्या सेवन आदि व्यसनोंका त्याग करना । १०. अभ्यासके लिए अनशनादि तपोंका आचरण करना । कुमारपालने प्रजा-हितके लिए कई नियमोंका प्रचलन किया । उसने निवंशके धनका त्याग कर एक नया आदर्श उपस्थित किया। प्राचीन कालको राजनीतिके अनुसार निवंश पुरुषको सम्पत्ति उसके मरनेके बाद राजाकी हो जाती थी और इस कारण मरने वालेकी माता, स्त्री आदि आश्रित व्यक्ति अनाथ होकर भटकते थे और मृत्युसे भी अधिक दुःख भोगते थे। इस क्रूर राजनीतिके कारण अबलाएं जीवित रहनेपर भी मृतके समान थीं। हेमचन्द्रके द्वयाश्रय काव्यको सूचनासे यह स्पष्ट है कि कुमारपालने उक्त प्रथाके दोषको अवगतकर इसे कानूनन बन्द करा दिया था । मन्त्री यशपालके नाटकसे भी इस तथ्यकी पुष्टि होती है। श्रावकके व्रत ग्रहण करनेके पश्चात् कुमारपालने अपने राज्यमें जीव हिंसापर प्रतिबन्ध लगा दिया था। कहा जाता है कि शाकम्भरीके चाहमान राजा अणोराज और मालवाके परमार राजा बल्लाल देवको पराजित करनेके पश्चात् एक दिन कुमारपालने मार्गमें किसी दीन दरिद्र ग्रामीण मनुष्यको कुछ बकरे कसाईखानेकी ओर ले जाते देखा। उससे पूछ-ताछ की और वस्तुस्थितिका ज्ञान होनेपर उनके मन में बोधि-सत्वके समान करुणाभाव उत्पन्न हुमा। उसने अपने अधिकारियोंको आज्ञा दी कि मेरे राज्यमें कोई भी जीव हिंसा करे उसे चोर और
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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