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________________ ६८ भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान पूज्य स्वामीको छोड़ शेष समस्त तीर्थंकरोंके समवशरण आये हैं। ये वन सिद्धक्षेत्र हैं, इनकी यात्राको भव्य जीव आते हैं।' राजगह सिद्ध भमि है. यहाँ भगवान महावीरका विपलाचलपर प्रथम समवशरण था । अवसर्पिणीके चतुर्थकालके अन्तिम भागमें ३३ वर्ष ८ माह और १५ दिन अवशेष रहनेपर श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके दिन अभिजित नक्षत्रके उदित रहनेपर धर्म तीर्थकी उत्पत्ति हुई थी। इस स्थानसे अनेक ऋषि-मुनियोंने निर्वाण पद प्राप्त किया है। श्रद्धय श्री नाथूराम प्रेमीने अनेक प्रमाणों द्वारा नंग-अनंग आदि साढ़े पांच करोड़ मुनिराजोंका निर्वाण स्थान यहाँके ऋष्यद्रिको बतलाया है ।२ आज कल यह ऋष्यद्रि चतुर्थ पहाड़ स्वर्णगिरि या सोनागिरि कहलाता है। श्री प्रेमीजीने निर्वाण भक्तिके ९ वें पद्य को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कर अंग-अनंग कुमारका मुक्ति स्थान राजगृहकी पंचपहाड़ियोंमें श्रमणगिरि-सोनागिरिको ही सिद्ध किया है । पूर्वापर सम्बन्ध विचार करनेपर यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत होता है । राजगृहके विपुलाचल पर्वतसे . गौतम स्वामीने निर्वाण लाभ किया है। उत्तर पुराणमें बतलाया गया है गत्वा विपुलशब्दादिगिरौ प्राप्स्यामि निवृतिम् । मन्निर्वृतिदिने लब्धां सुधर्मा श्रुतपारगः । उत्तर पुराण पर्व ७६ श्लो०५१ अन्तिम केवली श्री सुधर्मस्वामी और जम्बू स्वामीने भी विपुलाचल पर्वतसे ही निर्वाण प्राप्त किया है । केवली धनदत्त, सुमन्दर और मेघरथने भी राजगृहसे ही निर्वाण प्राप्त किया है। सेठ प्रीतंकरने भगवान् महावीरसे मुनि दीक्षा लेकर यहीं आत्मकल्याण किया था।' धीवरी पूतगन्धाने यहींकी नीलगुफामें सल्लेखना व्रत ग्रहण कर शरीर त्याग किया था । १. ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्रः सनिर्झरः । दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभं भूषयत्यलम् । वैभारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृतिराश्रितः । दक्षिणापरदिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ।। सज्यचापाकृति स्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । शोभते पांडुको वृत्तः पूर्वोत्तरदिगन्तरे । वासुपूज्यजिनाधीशादितरेषां जिनेशिनां । सर्वेषां समवस्थातैः पावनोरुवनांतराः ॥ तीर्थयात्रागतानेकभव्यसंघनिषेवितैः । नानातिशयसंबद्धः सिद्धक्षेत्रः पवित्रिताः ॥ -हरिवंशपुराण सर्ग ३ श्लो० ५३, ५४, ५५, ५७,५८ २. जैन-साहित्य और इतिहास पृ० २०१-२०३ ३. तपोमासे सितेपक्षे सप्तश्यां च शुभे दिने । निर्वाणं प्राप सौधर्मो विपुलाचलमस्तकात् ॥११०॥ ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् । कर्माष्टकविनिर्मुक्तः शाश्वतानंत सौख्यभाक् १२१ -जम्बूस्वामीचरित जम्बूस्वामी निर्वाणगमनाध्याय ४. सप्तभिः पंचभिः पूजा सर्वेट्टीदशभिश्च ते । अन्ते सिद्धशिलारूढाः सिद्धा राजगृहे पुरे । -हरिवंशपुराण अ० १८ श्लो० ११९ ५. अथ प्रियंकराख्याय साभिषेकं स्वंसम्पदं । वसुंधरामूजे प्रीतिकरो दत्वा विरक्तधीः ॥ एत्य राजगृहं सार्द्ध बहुभिभृत्यबांधवैः । भगवत्पार्श्वमासाद्य संयमं प्राप्तवानयम् ॥ -उत्तरपुराण पर्व ६ श्लो० ३८५-८६
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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