SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ कर्मप्रकृति हैं। जैसे कि ३० मुहर्त का एक दिन-रात, पन्द्रह दिन-रात का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक वर्ष प्रसिद्ध ही है। इन वर्षों के समुदाय का संकेत करने के लिए युग, दशक, शताब्दि आदि संज्ञाओं का भी प्रयोग देखने में आता है। लेकिन काल का प्रवाह अनन्त है। इसलिए वर्षों की अमुक-अमुक संख्या को लेकर प्राचीन काल में जो संज्ञायें शास्त्रों में निर्धारित की गई हैं, वे इस प्रकार हैं--पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड इत्यादि । इसी क्रम से कहते हुए अंतिम संज्ञा का नाम शीर्षप्रहेलिका है। ये सभी उत्तरोत्तर ८४ लाख गुणी होती हैं। इन संज्ञाओं को बताकर अनुयोगद्वारसूत्र में कहा है कि शीर्षप्रहेलिका तक गुणा करने पर १९४ अंक प्रमाण जो राशि उत्पन्न होती है, उतनी ही राशि गणित का विषय है। अर्थात् संख्यात संख्या की यहां तक छद्मस्थ गणना कर सकते हैं। इसके आगे उपमा प्रमाण की प्रवृत्ति होती है। आशय यह है कि समय की जो अवधि वर्षों के रूप में गिनी जा सकती है, उसके लिये पूर्वांग, पूर्व आदि संज्ञायें मान लीं, लेकिन समय की अवधि इतनी लंबी है कि उसकी गणना वर्षों में नहीं की जा सकती है, उसे उपमा-प्रमाण द्वारा जाना जाता है। उपमा प्रमाण के दो भेद हैं-पल्योपम और सागरोपम । समय की जिस लंबी अवधि को पल्य की उपमा दी जाती है, वह काल पल्योपम कहलाता है। अनाज वगैरह भरने के गोलाकार स्थान को पल्य कहते हैं। पल्योपम के तीन भेद हैं-उद्धारपल्योपम, अद्धापल्यापम और क्षेत्रपल्योपम। इसी प्रकार उद्धार, अद्धा और क्षेत्र के भेद से सागरोपम के भी तीन भेद हैं। इन पल्योपम और सागरोपम के तीन-तीन भेद भी दो प्रकार के हैंबादर और सूक्ष्म । इनका स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है ___ उत्सेधांगुल द्वारा निष्पन्न एक योजन प्रमाण लंबा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा एक गोल पल्य-गड्ढा बनाना चाहिये। जिसकी परिधि कुछ कम ३, योजन होगी। इसमें एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालानों को इतना ठसाठस भरना चाहिये कि न इन्हें आग जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही प्रवेश हो सके। उस पल्य से प्रति समय एक-एक बालाग्र निकालें। इस तरह करते-करते जितने समय में वह पल्य खाली हो, उस काल को बादर उद्धारपल्योपम कहते हैं और दस कोटाकोटी बादर उद्धारपल्योपम का एक बादर उद्धारसागरोपम होता है। इस बादर उद्धारपल्योपम के एक-एक केशाग्र के बुद्धि से असंख्यात, असंख्यात खण्ड करो। क्षेत्र की अपेक्षा यदि इनकी अवगाहना का विचार करें तो सूक्ष्म पनक जीव का शरीर जितने क्षेत्र को रोकता है, उससे असंख्यातगुणी अवगाहना वाले होंगे। इन केशाग्र खण्डों को भी पूर्व की तरह पल्य में ठसाठस भर देना चाहिये और पहले की तरह प्रति समय उस केशाग्रखण्ड को निकालें। इस प्रकार निकालने पर जितने समय में वह पल्य खाली हो, उतने काल को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहेंगे और दस कोटाकोटी सूक्ष्म उद्धारपल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम होता है। पूर्वोक्त बादर उद्धारपल्य से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक केशाग्र निकालने पर जितने समय में वह पल्य खाली हो, उतने समय को बादर अद्धापल्योपम काल कहते हैं और दस कोटाकोटी बादर अद्धापल्योपम काल का एक बादर अद्धासागरोपम होता है। पूर्वोक्त सूक्ष्म उद्धारपल्य में से सौ-सौ वर्ष के बाद केशाग्र का एक-एक खण्ड निकालने पर, जितने समय में बह पल्य खाली हो, उतने समय को सूक्ष्म अद्धापल्योपम काल कहते हैं और दस कोटाकोटी सूक्ष्म अद्धापल्योपम का एक सूक्ष्म अासागरोगन होता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy