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________________ कर्मति २०. रसाविभाग और स्नेहाविभाग के अन्तर का स्पष्टीकरण कर्मरस के वर्णन के प्रसंग में अनेक स्थानों पर स्नेह शब्द का और स्नेहस्पर्धक के वर्णन के प्रसंग में रस शब्द आता है। इस पद से अनुमान होता है कि स्नेह और कर्मरस ये दोनों एक होना चाहि पुद्गलों का स्नेह और अनुभाग रूप रस, ये दोनों एक नहीं हैं, परन्तु भिन्न हैं। उस भिन्नता का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कार्यभेद-कर्मस्कन्धों को परस्पर संबद्ध करना स्नेह का कार्य है और तदनुरूप (जिस कर्म का जो स्वभाव है, उस स्वभाव रूप) जीव को तीव्रमंदादि शुभाशुभ अनुभव कराना अनुभाग का कार्य है। इस प्रकार कार्यभेद से स्नेह और अनुभाग ये दोनों भिन्न हैं। वस्तुभेद--स्नेह यह कर्माणुओं में विद्यमान स्निग्ध स्पर्श है और अनुभाग तदनुरूप अनुभव की तीव्र-मंदता है अथवा तदनुरूप तीव्रमंदादि अनुभव है। इस प्रकार वस्तुभेद से भी स्नेह और अनुभाग ये दोनों भिन्न हैं। कारणभेद--कर्मस्कन्धों में स्नेह का कारण स्निग्ध स्पर्श रूप पुद्गल परिणाम है और अनुभाग की उत्पत्ति में जीव के काषायिक अध्यवसाय यही कारणरूप हैं। इस प्रकार कारणभेद से भी स्नेह और अनुभाग ये दोनों भिन्न हैं। पूर्वापरोत्पत्तिभेद--कर्म अथवा कार्मण देह रूप पुद्गलों के स्नेहाविभाग कम परिणाम से प्रव (तत्कर्मयोग्य परिणत होने के पहले) उत्पन्न हुए होते हैं और अनुभाग की उत्पत्ति कर्मपरिणाम के समय ही अर्थात् कर्मप्रायोग्य पुद्गल पहले अकर्म रूप अथवा कार्मणवर्गणा रूप होते हैं और वे जब कर्मरूप में परिणत होते हैं यानी जीव के साथ संबद्ध होते हैं, तब होता है और सचेतन कहलाने लगते हैं। इस प्रकार पूर्वापरोत्पत्ति भेद से भी स्नेह और अनुभाग ये दोनों भिन्न हैं। पर्यायभेद-स्नेह स्निग्धस्पर्श की पर्याय है और काषायिक अध्यवसायों से संयुक्त कर्मदलिक के गुण, अनुभाग, रस, अनुभाव, अनुभव, तीव्रता-मंदता ये अनुभाग की पर्याय हैं। प्ररूपणाभेद-स्नेह की प्ररूपणा स्नेहप्रत्यय, नामप्रत्यय और प्रयोगप्रत्यय रूप में की गई है और अनुभाग की प्ररूपणा शुभ-अशुभ, घाति-अघाति, एकस्थानक, द्विस्थानक इत्यादि रूप में की जाती है। इस प्रकार भी स्नेह और अनुभाष ये दोनों भिन्न हैं। सारांश यह है कि स्नेह के वर्णन में जहां पर भी रस शब्द आता है, वहां रस शब्द स्नेह का वाचक है परन्तु अनभागवाचक नहीं है तथा कर्मरस के सम्बन्ध में जहां भी स्नेह शब्द आता है, वहां उस स्नेह शब्द को कर्मरस का वाचक जानना चाहिये परन्तु स्निग्धस्पर्शवाचक नहीं। यद्यपि शब्दसाधर्म्य से अनुभाग को स्नेहविशेष कहा जा सकता है, परन्तु उन दोनों को एक रूप अथवा आधाराधेय मानना वास्तविक नहीं है। २१. असत्कल्पना द्वारा षट्स्थानक प्ररूपणा का स्पष्टीकरण (गाथा ३२ से ३७) १. षट्स्थानक की अंकसंदृष्टि में दिया गया एक-एक संख्या रूप अंक एक-एक अध्यवसाय रूप जानना चाहिये। जैसे १,२ इत्यादि। २. जितनेवां अंक उतनेवां अध्यवसायस्थान, जैसे कि १५वां अंक, यह १५वां अध्यवसायस्थान, २४वां अंक, यह २४वां अध्यवसायस्थान।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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