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________________ २३८ कर्मप्रकृति पुद्गलस्कन्धों के जैसे टुकड़े हो सकते हैं, वैसे उनके अन्दर रहने वाली गुणात्मक शक्ति के यद्यपि पृथक्पृथक् टुकड़े तो नहीं किये जा सकते हैं। फिर भी हम अपने सामने आने वाली वस्तुओं में गुणों की हीनाधिकता को सहज में ही जान लेते हैं और इस हीनाधिकता के असंख्य प्रकार हो सकते हैं। जैसे कि हमारे सामने भैंस, गाय और बकरी का दूध रखा जाये तो हम उसकी परीक्षा करके तुरन्त कह देते हैं कि इस दूध में चिकनाई अधिक है और इसमें कम। यह तरतमता इस बात को बताती है कि शक्ति के भी अंश होते हैं और यह अंशविभाजन ज्ञान के द्वारा ही किया जाता है। योग भी सलेश्य जीव की शक्ति है। अतः ज्ञान के द्वारा उसका अविभागरूप छेदन करने पर जघन्य और उत्कृष्ट से अविभाज्य अंश असंख्य लोकप्रदेशप्रमाण होते हैं। सबसे जघन्य वीर्य वाले सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक निगोदिया जीव के भी प्रत्येक आत्मप्रदेश पर भव के प्रथम समय में कम-से-कम असंख्यलोकप्रदेशप्रमाण वीर्याविभाग होते हैं और सर्वोत्कृष्ट योगधारक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के प्रत्येक आत्मप्रदेश पर भी अधिक-से-अधिक (उत्कृष्टतः) असंख्यलोकप्रदेश प्रमाण वीर्याविभाग होते हैं। लेकिन इस जघन्य और उत्कृष्ट में अन्तर यह है कि जघन्यपदीय असंख्य लोकप्रदेश से उत्कृष्टपदीय असंख्य लोकप्रदेश असंख्यात गुणे हैं। २. वर्गणाप्ररूपणा घनीकृत लोक के असंख्येय भागवर्ती असंख्य प्रतर प्रमाण आत्मप्रदेश के समुदाय की प्रथम वर्गणा होती है। यह सबसे जघन्य वर्गणा है। इस जघन्य वर्गणा से आगे अनुक्रम से एक, दो, तीन आदि वीर्याविभाग की वृद्धि से बनने वाली जितनी भी वर्गणायें होती हैं, उनमें क्रमशः अधिकाधिक असंख्यलोकप्रदेश प्रमाण वीर्याविभाग होते हैं। अर्थात् अनुक्रम से वर्गणाओं में वीर्याविभागों की वृद्धि होती जाती है और प्रत्येक वर्गणा में जीवप्रदेश घनलोक के असंख्यातभागवर्ती असंख्य प्रतरप्रदेश-प्रमाण होते हैं। इसको एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है-जैसे रुई, लकड़ी, मिट्टी, पत्थर, लोहा, चांदी और सोना अमुक परिमाण में लेने पर भी रुई से लकड़ी का, लकड़ी से मिट्टी का, मिट्टी से पत्थर का, पत्थर से लोहे का, लोहे से चांदी का और चांदी से सोने का आकार छोटा होते जाने पर भी ये वस्तुएँ उत्तरोत्तर ठोस और वजनी होती हैं। इसी तरह उत्तरोत्तर वर्गणाओं में वीर्याविभागों की अधिकता के बारे में समझना चाहिये। ३. स्पर्धकप्ररूपणा-- उत्तरोत्तर एक के बाद दूसरी, इस प्रकार एक, दो, तीन आदि वीर्याविभागों की समान वृद्धि के क्रम से प्राप्त होने वाली श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणाओं का समूह स्पर्धक कहलाता है। ४. अन्तरप्ररूपणा-- वर्गणायें तो एक, दो, तीन आदि वीर्याविभागों की वृद्धि से एक स्पर्धक में एक के बाद दूसरी, इस क्रम से जुड़ी हुई होती हैं। लेकिन स्पर्धक एक के बाद दूसरा, इस प्रकार के क्रम से जुड़ा हुआ नहीं होता है। किन्तु पूर्व स्पर्धक की उत्कृष्ट वर्गणा से उत्तर स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के बीच अन्तर होता है और यह अन्तर असंख्य लोकप्रदेश प्रमाण अविभागों का होता है। ५. स्थानप्ररूपणा श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धकों का एक योगस्थान होता है और ऐसे सभी योगस्थान भी श्रेणी के असंख्यातवें भागगत प्रदेशप्रमाण हैं।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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