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________________ कर्मप्रकृति इसी प्रकार परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानगत रसबंधक और द्विस्थानगत रसबंधक जीव भी जानना चाहिये तथा अशुभ परावर्तमान प्रकृतियों के द्विस्थानगत रसबंधक, त्रिस्थानगत रसबधक और चतुः स्थानगत रसबंधक कहना चाहिये । २०० . एक द्विगुणवृद्धि के अन्तराल में और द्विगुणहानि के अन्तराल में स्थितिस्थान पत्योपम के असंख्यात वर्गमूल प्रमाण होते हैं । अर्थात् पल्योपम के असंख्यात वर्गमूलों में जितने समय होते हैं तावत् प्रमाण स्थितिस्थान होते हैं । नाना अंतर अर्थात् नाना रूप द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानि स्वरूप स्थान पल्योपम सम्बन्धी प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, तावत् प्रमाण होते हैं । नाना द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानि वाले स्थान अल्प होते हैं तथा उनसे एक द्विगुणवृद्धि के अन्तराल में और एक द्विगुणहानि के अन्तराल में स्थितिस्थान असंख्यात गुणित होते हैं । " रसयवमध्य से प्रकृतियों के स्थितिस्थानादिकों का अल्पबहुत्व अणगारप्पा उग्गा, बिट्ठाणगया उदुविहपगडीणं । सागारा सव्वत्थ वि, हिट्ठा थोवाणि जवमज्झा ॥ ९६ ॥ ठाणानि चउट्ठाणा, संखेज्जगुणाणि उवरिमेवंति । तिट्ठाणे बिट्ठाणे, सुभाणि एगंतमी साणि ॥ ९७ ॥ उवर मिस्सा णि जहन्नगो सुभाणं तओ विसेसहिओ । होssसुभाण जहण्णो संखेज्जगुणाणि ठाणाणि ॥ ९८ ॥ बिट्ठाणे जवमज्झा हेट्ठा एगंत मीसमाणुर्वार । एवं तिचउट्ठाणे, जवमज्झाओ य डायठिई ।। ९९ ।। अंतो कोडाकोडी, सुभबिट्ठाण जवमज्झओ उवरि । एगंतगा विसिट्ठा, सुभजिट्ठा डायट्ठइजेट्ठा ।। १०० ।। शब्दार्थ --अणगारप्पाउग्गा - अनाकारोपयोगयोग्य, बिट्ठाणगया उ-द्विस्थानगत ही, दुविह पगडीणंदोनों प्रकार की प्रकृतियों के ( परा० शुभाशुभ प्रकृतियों के), सागारा-साकारोपयोगयोग्य, सव्वत्थ वि-सर्वत्र भी, हिट्ठा - नीचे, थोवाणि - अल्प, जवमज्झा - यवमध्य से । ठाणाणि स्थितिस्थान, उर्वार - ऊपर, एवंति - इसी तरह, प्रकृतियों के एगंत - एकान्तयोग्य, मीसाणि- मिश्रयोग्य । चउट्ठाणा - चतुःस्थानगत रस के संखेज्जगुणाणि - संख्यात गुणे, तिट्ठाणे - विस्थानगत में, बिट्ठाणे - द्विस्थानगत में, सुभाणि - शुभ वर - ऊपर, मिस्सा णि मिश्र योग्य, जहनगो - जघन्य स्थितिबंध, सुभाणं - शुभ प्रकृतियों के, तओ - उससे, विसेसहिओ - विशेषाधिक, होइ - होते हैं, असुभाणं - अशुभ प्रकृतियों के, जहण्णो - जघन्य, संखेज्जगुणाणि - संख्यात गुणे, ठाणाणि - स्थान । १. यहाँ सर्व अन्तरों में रहे हुए सर्व स्थितिस्थानों की अपेक्षा से ही असंख्यात गुणरूपता सम्भव है किन्तु एक अन्तराल के सर्व स्थितिस्थानों की अपेक्षा असंख्यात गुणपना सम्भव नहीं है ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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