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________________ बंधनकरण में बंधक रूप से वर्तमान जीव अल्प होते हैं । उससे द्वितीय स्थिति में विशेषाधिक होते हैं । उससे तृतीय स्थिति में विशेषाधिक होते हैं । इस प्रकार पूर्व के समान तब तक कहना चाहिये, जब तक विशेषहानि में भी बहुत से सागरोपम शत व्यतीत होते हैं तथा अशुभ परावर्तमान प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रसबंधक होते हुए ध्रुव प्रकृतियों की स्व-प्रायोग्य जघन्य स्थिति में बंधक रूप से वर्तमान जीव अल्प होते हैं, उससे द्वितीय स्थिति में विशेषाधिक होते हैं, उससे भी तृतीय स्थिति में विशेषाधिक होते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक बहुत सागरोपम शत व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् विशेषहीन-विशेषहीन तव तक कहना चाहिये, जब तक विशेषहानि से भी बहुत सागरोपम शत व्यतीत होते हैं। अशुभ परावर्तमान प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रसबंधक भी इसी प्रकार विशेषहीन-विशेषहीन तब तक कहना चाहिये, जब तक उन अशुभ परावर्तमान प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, अर्थात् ये सब जीव उत्कृष्ट स्थितिगत (चतुःस्थानकप्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिगत) चतुःस्थानक रस के बंधक होते हैं। इस प्रकार अनन्तरोपनिधा से प्ररूपणा की गई । अब परंपरोपनिधा से प्ररूपणा करते हुए कहते हैं पल्लासंखियमूलानि, गंतु दुगुणा य दुगुणहीणा य । नाणंतराणि पल्लस्स, मूलभागो असंखतमो॥९५॥ शब्दार्थ-पल्लासंखियमूलानि-पल्योपम के असंख्यात वर्गमूल प्रमाण, गंतुं--अतिक्रमण होने पर, दुगुणा-द्विगुणाधिक, य और, दुगुणहीणा-द्विगुणहीन, य-और, नाणंतराणि-नाना प्रकार के अंतर, पल्लस्सपल्योपम के, मूलभागो-वर्गमूल का, असंखतमो-असंख्यातवां भाग । गाथार्थ-पल्योपम के असंख्यात वर्गमूल प्रमाण स्थिति का अतिक्रमण करने पर जीवों की संख्या द्विगुणाधिक और द्विगुणहीन हो जाती है तथा ये नाना अंतर पल्योपम के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। विशेषार्थ-परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रसबंधक ध्रुव प्रकृतियों के जघन्य स्थिति में बंधक रूप से वर्तमान जीवों की अपेक्षा जघन्य स्थिति से आगे जो पल्योपम के असंख्यात वर्गमूल हैं, उन पल्योपम के असंख्यात वर्गमूलों में जितने समय होते हैं, तावत् प्रमाण स्थितियों का उल्लंघन करके अनन्तरवर्ती स्थिति में वर्तमान जीव दुगुने होते हैं, उससे आगे और भी पल्योपम के असंख्यास वर्गमूल प्रमाण स्थितियों का उल्लंघन करके जो अनन्तर स्थितिस्थान प्राप्त होता है, उसमें जो जीव हैं, वे दुगुने होते हैं । इस प्रकार दुगुने-दुगुने तब तक कहना चाहिये, जब तक बहुत से सागरोपम शत व्यतीत होते हैं । उनसे आगे पल्योपम के असंख्यात वर्गमूल प्रमाण स्थितियों का उल्लंघन करके जो अन्य स्थितिस्थान प्राप्त होता है, उसमें अर्थात् विशेषवृद्धिगत चरम स्थिति में बंधक रूप से वर्तमान जो जीव हैं, उनकी अपेक्षा द्विगुणहीन होते हैं अर्थात् आधे होते हैं। उससे आगे फिर फ्ल्योपम के असंख्यात वर्गमूल प्रमाण स्थितियों का उल्लंघन करके प्राप्त होने वाले अन्य स्थितिस्थान में जीव आधे होते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक द्विगुणहानि में भी बहुत से सागरोपमः शत व्यतीत हो ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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