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________________ किन्तु ये सब कारण निमित्त के रूप में होते हैं । उपादान तो स्वयं का ही अशुद्ध होता है, तभी ऐसी परिस्थितियों का निर्माण होता है । जो कुछ भी सुख-दुःख, ज्ञानावस्था या अज्ञानावस्था की स्थिति बनती है, उसमें उपादानकारण तो स्वयं का ही होता है, निमित्तकारण के रूप में अन्य व्यक्ति हो सकता है। उदाहरण के रूप में-किसी व्यक्ति को पत्थर की चोट लगी और रक्त प्रवाहित होने लगा । इस दुःख का मूल उपादानकारण तो व्यक्ति के अपने कर्म हैं, पत्थर तो एक निमित्तकारण के रूप में है । इस पर यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि यदि हम दूसरों के हिताहित करने में मात्र निमित्त होते हैं तो हम उन क्रियाओं के पुण्य-पाप के भागी भी नहीं बन सकते । इसका समाधान यह है कि जब निमित्त बनने वाला व्यक्ति स्वयं को कर्ता के रूप में मान लेता है और उसके प्रति स्वयं की रागद्वेष की वृत्ति प्रकट करता है तो वह उन कर्मों के पुण्य-पाप के फल में भी सहभागी बन जाता है। अतः यह स्पष्ट है कि कृतकर्मों का फल भी कर्ता को ही भोगना पड़ता है। अध्यात्मशास्त्र की भूमिका--कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र का मूल लक्ष्य होता है-आत्मा सम्बन्धी विषयों पर विचार प्रस्तुत करना तथा उसके पारमार्थिक रूप--परमात्मा आदि विषयों पर भी गहरा मंथन करना। इन विषयों पर चर्चा करने के पहले आत्मा के व्यावहारिक रूप पर चिन्तन अपेक्षित है । आत्मा की व्यावहारिकता पर चिन्तन किये बिना परमात्मरूप पर स्पष्टतया यथातथ्य चिन्तन नहीं किया जा सकता। एक प्राणी सुखी है, दूसरा दुःखी, एक विद्वान, दुसरा मर्ख, एक मानव, दूसरा पशु, आदि-आदि आत्मा के व्यावहारिक रूप को समझे बिना उनका अन्तरंग रूप नहीं समझा जा सकता। दूसरी बात यह है कि दृश्यमान अवस्थाएं आत्मा का स्वभाव क्यों नहीं हैं ? अत: अध्यात्मशास्त्र के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह आत्मा के दृश्यमान रूप को पहले स्पष्ट करे । यह कार्य कर्मशास्त्र ने संपादित किया है। वह दृश्यमान जगत की सारी अवस्थाओं को वैभाविक बतलाकर आत्मिक जगत की सारी अवस्थाओं को इन सब से विलग, शुद्ध चैतन्य के रूप में विज्ञापित करता है। जब तक आत्मा के वैभाविक रूप का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक आत्मा का स्वाभाविक रूप भी नहीं जाना जा सकता। वैभाविक रूप ज्ञात होने पर ही जिज्ञासा प्रादुर्भूत होती है कि आत्मा का स्वाभाविक--अंतरंग रूप क्या है ? उस समय आत्मा का मौलिक स्वरूप उपस्थित किया जाता है । आत्मा से परमात्मस्वरूप की अभिव्यक्ति बतलाई जाती है, जो कि अध्यात्मशास्त्र प्रस्तुत करता है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र की पृष्ठभूमिका के रूप में है। कर्मशास्त्र के बिना अध्यात्म अवस्था का विज्ञान नहीं हो सकता है । डिब्बे के अन्दर स्थित वस्तु तभी प्राप्त हो सकती है जब कि डिब्बे के रूप को समझकर उसे उद्घाटित किया जाये--खोला जाये। इसी प्रकार अध्यात्म का ज्ञान तभी हो सकता है, जब कर्मकृत बाह्य अवस्थाओं को समझा जाये--हटाया जाये और अन्तरंग ज्ञान को उजागर किया जाये। बाह्य वस्तुओं के प्रति अहंभाव को, शरीर-आत्मा के प्रति अभेद भ्रम को हटाकर भेदज्ञान की शिक्षा कर्मशास्त्र ही देता है। जिससे अन्तरदृष्टि खुले, अध्यात्म का ज्ञान हो, परमात्मा के दर्शन हो जायें । यह कर्मशास्त्र अभेदभ्रम से आत्मा को हटाकर, भेदज्ञान की तरफ आकर्षित करता हुआ पुनः परमात्मस्वरूप के अभेदज्ञान रूप अध्यात्म की उच्च भूमिका पर उपस्थित करता है। योगशास्त्र की बीज रूप अवस्था भी कर्मश.स्त्र में समाविष्ट है । परन्तु बहुत से अध्येता कर्म-प्रकृतियों की संख्या तथा उसके अवान्तर अनेक भेद-प्रभेदों तथा उसके सविस्तृत विवेचन को देखते हुए इसमें रुचि नहीं २३
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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