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________________ बंधनकरण अर्थात् अनन्तर तीसरे भव में बंधती है, एसा जो कहा गया है, वह बंध की अपेक्षा नहीं किन्तु निकाचना की अपेक्षा कहा है, ऐसा यह नियम है और इसी अर्थ को ग्रहण करना चाहिये । निकाचित करने के पश्चात् निश्चय से वह अबंध्यफल अर्थात् अवश्य विपाकफल देती है। किन्तु अनिकाचित अवस्था में जो जिननामकर्म का बंध है, उसके फल का नियम नहीं है । __ इस प्रकार विशेषणवती ग्रंथ में उक्त शंका का समाधान किया है । शंका--यदि तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होती है तो उतनी स्थिति को पूरा करना तिर्यंचभवों में परिभ्रमण किये विना शक्य नहीं है और तिर्यंचगति में तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता वाला जीव कितने काल तक रहेगा ? यदि वह अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण रहता है तो ऐसा मानने में आगम से विरोध आता है । क्योंकि आगम में तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाले जीव का तिर्यंचगति में होने का निषेध किया गया है । समाधान--यह कोई दोष नहीं है । क्योंकि निकाचित किये गये तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता का ही आगम में निषेध किया गया है । जैसा कि कहा है जमिह निकाइयतित्थं, तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरम्मि नत्थि दोसो, उव्वट्टोवट्टणासज्मे ॥' इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है कि इस प्रवचन में जो तीर्थंकर नामकर्म निकाचित अर्थात् अवश्य वेदन करने रूप से स्थापित किया गया है, उस स्वरूप से विद्यमान का ही तिर्यंचगति में निषेध किया गया है। किन्तु इतर अर्थात् अनिकाचित तीर्थकर नामकर्म का जो कि उद्वर्तना और अपवर्तना करण के योग्य है, उसका तिर्यंचभव में पाये जाने में भी कोई दोष नहीं है । इस तीर्थंकर नामकर्म का अबाधाकाल भी अन्तर्मुहर्त है, उससे परे दलिकरचना सम्भव होने से प्रदेशोदय अवश्य ही सम्भव है । (विपाकोदय तो तेरहवें गुणस्थान में ही सम्भव है)। अब पूर्वोक्त प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का निरूपण करते हैं वग्गुक्कोसठिईणं, मिच्छत्तुक्कोसगेण जं लद्धं । सेसाणं तु जहन्नो, पल्लासंखेज्जगेणूणो ॥७९॥ शब्दार्थ--वगुक्कोसठिईणं-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति को, मिच्छत्तुक्कोसगेण-मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति द्वारा भाग देने पर, जं-जो, लद्धं-लब्ध प्राप्त हो, सेसाणं-शेष प्रकृतियों की, तु-और, जहन्नो-जघन्य, पल्लासंखेज्जगेणूणो-पल्य के असंख्यातवें भाग कम । १. पंचसंग्रह, पंचमद्वार गा.४४ २. जिननामकर्म के प्रदेशोदय से ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। जिननाम का बंध मनुष्यगति में ही होता है ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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