SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ कर्मप्रकृति (श्वासोच्छ्वास) होते हैं और एक प्राणापान में कुछ अधिक सत्रह क्षुल्लकभव' और एक मुहूर्त में ६५,५३६ क्षुल्लकभव होते हैं। यहाँ पर भी 'सव्वहिं हस्से' इस वचन के अनुसार सभी प्रकृतियों का अन्तर्मुहूर्त अबाधाकाल होता है और अवाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । उपपात आयु वाले देव और नारकों के आयुष्य की जघन्य स्थिति दस हजार (१०,०००) वर्ष प्रमाण है और अबाधाकाल अन्तर्मुहुर्त है तथा अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है। __ अब तीर्थंकर और आहारकद्विक की जघन्य स्थिति बतलाने के लिए कहते हैं-'उक्कोसेत्यादि' अर्थात् तीर्थंकरनाम और आहारक शरीर, आहारकअंगोपांग नामकर्म की जो उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण पहले कही गई है, वही संख्यात गुणित हीन जघन्य स्थिति होती है, फिर भी वह अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ही होती है । शंका--तीर्थकर नामकर्म तीर्थंकरभव की प्राप्ति से पूर्व तीसरे भव में बंधता है, जैसा कि कहा है-- बज्मइ तं तु य भयवओ तइयभवो सक्कइत्ताणं ।' अर्थात् भगवान् तीर्थंकर प्रकृति को तीन भव पूर्व वांधते हैं । इसलिये इस वचन के अनुसार तीर्थंकर प्रकृति की जो जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कही है, वह कैसे सम्भव है ? समाधान--आगम का अभिप्राय नहीं समझने क कारण उक्त कथन अयोग्य है । क्योंकि 'वज्झइ तं तु' इत्यादि कथन निकाचना की अपेक्षा किया गया है । अन्यथा तीन भव से पहले भी तीर्थंकर प्रकृति बांधी जा सकती है । जैसा कि विशेषणवती ग्रंथ में कहा है-- कोडाकोडीअयरोवमाण तित्थयरनामकम्मठिई । बज्मइ य तं अणंतरभवम्मि तइयम्मि निद्दिळें ॥ अर्थात् अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण जो तीर्थंकर नामकर्म की स्थिति अनन्तर अर्थात् पिछले तीसरे भव में बंधती है, ऐसा कहा गया है, सो वह कैसे सम्भव है ? इसका समाधान करते हुए उसी स्थान पर कहा है कि जं बज्मइत्ति भणियं तत्थ निकाइज्जइ ति नियमोऽयं । तदवंशफलं नियमा भयणा अनिकाइयावत्थे ॥ १. आवश्यक टीका में कहा है कि क्षुल्लकभवग्रहण वनस्पतिकाय में सम्भव है। २. एक मुहुर्तगत ६५,५३६ क्षुल्लकभव राशि में महुर्तगत प्राणापान राशि ३७७३ से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त होता है, उतने एक प्राणापान में क्षुल्लकभव होते हैं । भाग देने पर १७ तो पूरे और १३९५ शेष रहते हैं। इसीलिये यहां एक प्राणापान में कुछ अधिक सत्रह क्षुल्लकभव होने का संकेत किया है। ३. आवश्यक नियुक्ति १८० ४. विशेषणवती (जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण), गा. ७८ ५. विशेषणवती, गा. ८०
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy