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________________ बंधनकरण १६७ अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण, कुल मिलाकर छत्तीस (३६) प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम होती है । इनका अवाधाकाल दो हजार वर्ष है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है। तेत्तीसुदही सुरनारयाउ' अर्थात् देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम होती है । जो पूर्वकोटि वर्ष के विभाग से अधिक है । इनका अबाधाकाल पूर्वकोटि का विभाग है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है। संसाउ पल्लतिगं' अर्थात् शेष रही जो मनुष्यायु और तिर्यंचायु हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि के विभाग से अधिक तीन पल्योपम होती है। इनका अबाधाकाल पूर्व'कोटि का त्रिभाग है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । यह पूर्वकोटि की अधिकता चारों गतियों में गमन के योग्य उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाले तिर्यंच और मनुष्यों की अपेक्षा जानना चाहिये । क्योंकि इनका ही आश्रय करके यह ऊपर कही गई उत्कृष्ट स्थिति और पूर्वकोटि का त्रिभाग रूप अवाधाकाल प्राप्त होता है । बंधक जीवों के आश्रय से आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति . .. अब असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि बंधक जीवों के आश्रय से आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति का प्रतिपादन करते हैं आउचउक्कुक्कोसो, पल्लासंखेज्जभागममणेसु । सेसाण पुवकोडि, साउतिभागो अबाहा सि ॥७४॥ शब्दार्थ--आउचउक्कुक्कोसो--आयुचतुष्क का उत्कृष्ट बंध, पल्लासंखेज्जभाग-पल्य का असंख्यातवां भाग, अमणेसु-असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में, सेसाण-शेष जीवों का, पुवकोडी-पूर्वकोटिवर्ष, साउतिभागो-स्व-स्व आयु का तीसरा भाग, अबाहा-अवाधा, सि-इनके । गाथार्थ-असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव चारों आयु कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण और शेष जीव परभव की आयु का उत्कृष्ट स्थितिबंध अपने-अपने भव सम्बन्धी आयु के त्रिभाग से अधिक पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण करते हैं । वहीं उनके वर्तमान . भव का त्रिभाग अबाधाकाल होता है । - विशेषार्थ--अमनस्क अर्थात् असंज्ञी पंचेन्द्रियं पर्याप्त जीव यदि परभव सम्बन्धी चारों आयु प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति का बंध करते हैं तो उनकी वह उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण होती है । उनका अबाधाकाल पूर्वकोटि का त्रिभाग है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । शेष पर्याप्त और अपर्याप्त ..१. ज्योतिष्क रण्डक ६३ में पूर्व का प्रमाण इस प्रकार बतलाया है पुवस्स उ परिमाणं सयरी खलु होति सबसहस्साई। छप्पणं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडोणं ।।। अर्थात ७० लाख, ५६ हजार करोड वर्ष का एक पूर्व होता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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