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________________ कर्मप्रकृति सौ वर्ष अवाधाकाल है एवं अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । तीसरे संस्थान (सादिसंस्थान) और संहनन (नाराचसंहनन) की उत्कृष्ट स्थिति चौदह कोडाकोडी सागरोपम की है, इनका अबाधाकाल चौदहसौ वर्ष का है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । चौथे संस्थान (वामनसंस्थान) और संहनन (अर्धनाराचसंहनन) की उत्कृष्ट स्थिति सोलह कोडाकोडी सागरोपम की है । इनका अबाधाकाल सोलहसो वर्ष है और अवाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है। पांचवें संस्थान (कुज्जसंस्थान) और संहनन (कोलिकासंहनन) की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है । इनका अबाधाकाल अठारहसौ वर्ष है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । छठे संस्थान (हुंडकसंस्थान) और संहनन (सेवार्तसंहनन) की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है और इनका अवाधाकाल दो हजार वर्ष है तथा अवाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । _ 'अट्ठारस सुहुमविगलतिगे' अर्थात् सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण रूप सूक्ष्मत्रिक तथा द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति रूप विकलत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । इन का अबाधा काल अठारह सौ वर्ष है तथा अवाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । -. 'तित्थगराहारदुगे त्ति' अर्थात् तीर्थंकरनाम और आहारकशरीर, आहारकअंगोपांग रूप आहारकद्विक को उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी' सागरोपम प्रमाण होती है और इनका : अवाधाकाल अन्तर्मुहूर्त होता है तथा अवाधाकाल से हीन कर्मदलिकनिषेक होता है । . 'वीसा सनिच्चनामाण' अर्थात् नीचगोत्र एवं नामकर्म की जो प्रकृतियां शेष रही हुई है, यथा-नरकगति, नरकानुपूर्वी, तिर्यंचद्विक (तिर्यंचगति, तिथंचानुपूर्वी) एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्मण, औदारिक, वैक्रिय शरीर नामकर्म२ औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श' अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, १. अन्तःकोडाकोडी-देशोन काडाकोडी (एकः कोडाकोडी में से कुछ न्यून) । एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर प्राप्तराशि को कोडाकोडी कहते हैं। २.बंधन और संघात नामकर्म के अवान्तर भेदों की स्थिति अपने अपने नाम वाले शरीरनाम की स्थिति के बराबर समझना चाहिये-स्थित्युदयबंधकाला: संघातबंधनानां स्वशरीरतुल्या ज्ञेया। -कर्मप्रकृति, यशो. टीका ३. कर्मप्रकृति में तो वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की स्थिति नहीं बतलाई है, परन्तु पंचसंग्रह में इस प्रकार स्पष्ट किया है-- . सुक्किलसुरभीमहुराण दस उ तह सुभ चउण्हफासाणं। अड्ढाइज्जपवुड्ढी अम्बिलहासिद्दपुयाणं ।। -उत्कृष्ट स्थितिबंधद्वार ३३ शुक्लवर्ण, सुरभिगंध, मधुररस, मदु, स्निग्ध, लघु, उष्ण स्पर्शों की दस कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। आगे प्रत्येक वर्ण और प्रत्येक रस की स्थिति अढाई कोटि-कोटि सागरोपम अधिक-अधिक जानना चाहिये। अर्थात् हरितवर्ण और आम्लरस नाम की उत्कृष्ट स्थिति साढ़े बारह कोडाकोडी सागर प्रमाण है। लालवर्ण और कषायरस नाम की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागर प्रमाण है। नीलवर्ण और कटुक रस नाम की उत्कृष्ट स्थिति साढ़े सत्रह कोडाकोडी सागर प्रमाण है और इनके अतिरिक्त शेष भेदों, कृष्णवर्ण, तिक्तरस, दुर्गन्ध, गुरु, कर्कश, कक्ष, शीत स्पर्श नाम की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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