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________________ गौतम बुद्ध का सिद्धान्त है कि सारा संसार कर्म से चलता है। प्रजा कर्म से चलती है। चलते हुए रथ का चक्र जिस प्रकार धुरी से बंधा रहता है, इसी प्रकार प्राणी भी कर्म से संबंधित है। यद्यपि बौद्धदर्शन ने जगतवैचित्र्य के कारण की खोज में स्वभाव को भी स्वीकार किया है, तथापि बुद्ध के विचारों में कर्मसिद्धान्त की ही प्रमुखता रही है । बुद्ध से जब शुभ माणवक ने प्रश्न किया - हे गौतम! क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है कि मनुष्य होते हुए भी मनुष्य रूप वाले में हीनता या उत्तमता दिखलाई देती है। हे गौतम! यहाँ मनुष्य अल्पायु-दीर्घायु, बहुरोगी अल्परोगी, कुरूप-रूपवान, दरिद्र धनवान, निर्बुद्धि प्रज्ञावान क्यों दिखलाई देते हैं? हे गौतम इसका क्या कारण है ? उत्तर में गौतम बुद्ध ने कहा हे माणवक! कर्मस्वक, कर्मदायक कर्मयोनि कर्मबन्धु, कर्मप्रतिशरण है। कर्म ही प्राणियों की हीनता और उत्तमता करता है । इस प्रकार बौद्ध विचारणा में कर्मसिद्धान्त को स्वीकार तो किया है, लेकिन वैचारिक प्रत्यय के रूप में ही बौद्धदर्शन में प्राणी हीन और उत्तम क्यों होता है, इसका उत्तर तो कर्मसिद्धान्त के रूप में मिलता है, किन्तु कैसे होता है, इस विषय में कोई समाधान नहीं मिलता । जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त की प्रक्रिया का सूक्ष्म, गहन एवं व्यवस्थित विश्लेषण मिलता है । क्यों और कैसे का स्पष्ट समाधान प्राप्त होता है, जिसका संक्षिप्त वर्णन यहां प्रस्तुत है। 'कर्म' शब्द के विभिन्न अर्थ कर्म शब्द विभिन्न अर्थों में ग्रहण किया जाता है। सामान्यतः कर्म शब्द का अर्थ 'क्रिया' के रूप में लिया जाता है । प्रत्येक प्रकार का स्पंदन - चाहे वह मानसिक हो या कायिक, 'क्रिया' कहा जाता है। जैनदर्शन में इसे त्रियोग मन-वचन-काय के रूप में लिया जाता है। कर्म का यह क्रियात्मक अर्थ कर्म की आंशिक व्याख्या प्रस्तुत करता है । मीमांसादर्शन में कर्म का अर्थ यज्ञ-याग के रूप में लिया गया है। गीता में कर्म शब्द के अर्थ में यज्ञ-याग के साथ आश्रम तथा वर्णानुसार किये गये स्मार्त कर्मों को भी ग्रहण किया है। बौद्ध विचारकों ने भी कर्म शब्द से शारीरिक, मानसिक, वाचिक त्रियाओं को लिया है, जो अपनी नैतिक शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार कुशल या अकुशल कर्म कहे जाते हैं। यद्यपि 'कर्म' शब्द से बौद्धदर्शन में क्रिया अर्थ लिया जाता है, तथापि वहाँ पर कर्म शब्द से 'चेतना' की ही प्रमुखता है । निकाय में बुद्ध ने कहा है--चेतन ही भिक्षुओं का कर्म है, ऐसा मैं कहता हूँ चेतना के द्वारा ही कर्म को करता है काया से, वाणी से मन से । तात्पर्यार्थ यह है कि चेतना के रहने पर ही समस्त क्रियाएं संभवित हैं । उपर्युक्त कथनानुसार कर्म का अर्थ क्रियात्मक ही लिया गया है, किन्तु कर्मसिद्धान्त में कर्म शब्द का अर्थ क्रिया से कुछ विस्तृत है । वहाँ पर शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रियाओं का चेतना पर पड़ने वाला प्रभाव तथा तत्फलस्वरूप भावी क्रियाओं का निर्धारण और उनसे होने वाली अनुभूति का 'कर्म' शब्द में ही समावेश किया गया है । संक्षेपतः कर्म शब्द से दो अर्थं लिये जाते हैं- क्रिया और उसका फल ( विपाक ) । अर्थात् कर्म शब्द में प्रक्रिया से लेकर फल तक के सारे अर्थ सन्निहित हैं। जैनदर्शन में कर्म से उन परमाणुओं को भी ग्रहण किया है जो प्राणी की क्रियाविशेष से चेतन की ओर आकर्षित होकर उससे सम्बद्ध हो जाते हैं तथा समय की परिपक्वता के अनुसार अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कर्म शब्द का अर्थ लिया जाय तो कर्म एक ऐसी शक्ति है, जो एक क्रिया के कारण संचित होती है व दूसरी क्रिया से निर्जरित हो जाती है । अपने उदयकाल में अपर क्रिया को जन्म देकर स्वयं भी अपर रूप में पुनः संचित हो जाती है ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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