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________________ वैदिकदर्शन की प्रारंभिक अवस्था से लेकर औपनिषदिक काल तक तो कर्मसिद्धान्त का क्रमबद्ध व्यवस्थित विवेचन वैदिकदर्शन में उपलब्ध नहीं था, जैसा कि प्रोफे. मालवणिया का कथन है आधुनिक विद्वानों को इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि उपनिषदों के पूर्वकालीन वैदिकसाहित्य में संसार और कर्म की कल्पना का कोई स्पष्ट रूप दिखलाई नहीं देता था। जहाँ वैदिक एवं पूर्ववर्ती ऋषियों ने जगत्-वैचित्र्य के कारण की खोज बाहरी तत्त्वों में, ब्रह्म और माया, प्रकृति और पुरुष के रूप में की तो औपनिषदिक ऋषियों ने इस विविधता का आंतरिक कारण जानने का प्रयास किया। फलस्वरूप काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, पुरुष आदि कारण सामने आए। कालवाद-कालवादियों का कहना है-जगत के समस्त भाव और अभाव तथा सुख और दुःख का मूल काल ही है। काल ही समस्त भूतों की सृष्टि करता है, संहार करता है, प्रलय को प्राप्त प्रजा का शमन भी करता है। संसार के समस्त शुभाशुभ विचारों का उत्पादक काल ही है। काल ही प्रजा का संकोच-विस्तार करता है । सब के निद्रामग्न होने पर भी काल ही जागत रहता है । अतीत, अनागत एवं प्रत्युत्पन्न भावों का काल ही कारण है। उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है । स्वभाववाद-स्वभाववादियों का कहना है कि कांटों का नुकीलापन, मृग, पक्षियों के चित्र-विचित्र रंग, हंस का शुक्ल वर्ण शुकों का हरापन मोर के रंगबिरंगे वर्ण होना, यह संसार का सारा कार्य स्वभाव से ही प्रवृत्त होता है। बिना स्वभाव कोई कार्य नहीं हो सकता। नियतिवाद-नियतिवादियों का सिद्धान्त है कि जो कुछ होता है वह भवितव्यतावश होता है। जिस पदार्थ की निष्पत्ति जिस रूप में होने वाली है, वह उसी रूप में होती है। जो कार्य नहीं होने वाला है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं होगा। जिस व्यक्ति की मृत्यु नहीं होने वाली है, उसे विष, (पोइजन) भी दे दिया जाये तो उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। जो कुछ भी होता है वह सब नियति से ही होता है। यदृच्छावाद-यदृच्छावादियों का कहना है-कुछ भी कार्य होता है, वह यदृच्छा, अपने आप होता है । यदृच्छा का अर्थ है अपने आप कार्य की सिद्धि हो जाना । इस वाद में नियत कार्यकारण की स्थिति नहीं रहती। मनकल्पित रूप से किसी भी कार्य का कोई भी कारण मान लिया जाता है। भूतवाद-भूतवादियों का कथन है कि जगत के संपूर्ण कार्य भूतों से निर्मित हैं । भूतपंचक ही इस लोक की उत्पत्ति के मूल कारण हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ये पंच भूत कहलाते हैं। पुरुषवाद-पुरुषवादियों का यह मानना है कि सृष्टि का कर्ता, भोक्ता, नियन्ता सब कुछ पुरुष ही है। इसके दो वाद प्रचलित हैं--ब्रह्मवाद और ईश्वरवाद । ब्रह्मवादी सारे जगत के चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि पदार्थों का उपादानकारण ब्रह्म को ही मानते हैं ___ सर्व व खलु इदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन । ईश्वरवादी ईश्वर को ही अखिल जगत का कर्ता मानते हैं। ईश्वर के हिलाये बिना संसार का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। जड़ एवं चेतन तत्त्वों का संयोजक स्वयं ईश्वर ही है। लोकवैचित्र्य का मूलकारण जानने के लिये उपर्युक्त वादों में कुछ प्रयत्न तो किया गया है, किन्तु यह प्रयत्न सत्य तथ्य को स्पष्ट नहीं कर सका। प्रत्येक प्राणी के सुख-दु:ख के रूप भिन्न-भिन्न हैं। एकसमान पुरुषार्थ करने पर भी एक को लाभ होता है, दूसरे को हानि । एक सुखी बनता है, दूसरा दुःखी। एक को बिना प्रयत्न किये अकस्मात् धन की प्राप्ति हो जाती है तो दूसरे को लक्षाधिक प्रयत्न करने पर कार्षापण भी प्राप्त नहीं होता। इसके कारण की अन्वेषणा जैन और बौद्ध दर्शन में उपलब्ध होती है। बुद्ध और महावीर ने ईश्वर आदि के स्थान पर कर्म को ही प्रतिष्ठित किया । जगत्वैचित्र्य का मूल कारण 'कर्म' है, यह उद्घोषणा की। ईश्वरवादियों ने जो स्थान ईश्वर को दिया वही स्थान जैन या बौद्ध दर्शन में कर्म को दिया गया है। :
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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