SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मप्रति '' उनको यदि असत्कल्पना से सैंतीस (३७). माना जाये तो ये चौथे स्पधंक की प्रथम बर्गणा के हैं। दूसरी वर्गणा में अड़तीस (३८), तीसरी वर्गणा में उनतालीस (३९) और चौथी बर्गणा में चालीस (४०) प्राप्त होते हैं, इस प्रकार इस चौथे स्पर्धक में (३७+३८+३९+४०=१५४) एक सौ चउफ्न रसाविभाग प्राप्त होते हैं । ___इस प्रकार असत्कल्पना की अपेक्षा उपर्युक्त चार (४) स्पर्धकों वाला प्रथम अनुभागबंधस्थान हुआ।' इस प्रथम स्थान के रसाविभागों की सर्व संख्या का योग (३४+७४+११४ +१५४ =३७६) तीन सौ छिहत्तर होता है। इससे ( प्रथम अनुभागबंधस्थान से ) आगे एक रसाविभाग की अधिक वृद्धि से रसाविभाग प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु सर्व जीवों से अनन्त गुणे अधिक ही प्राप्त होते हैं। ___ उन्हें यदि असत्कल्पना से संतालीस (४७) मानें तो ये दूसरे अनुभागबंधस्थान के प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा में होते हैं । इससे आगे दूसरी वर्गणा में अड़तालीस (४८), तीसरी वर्गणा में उननचास (४९) और चीथी वर्गणा में पचास (५०) रसाविभाग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इस द्वितीय स्थान के प्रथम स्पर्धक में (४७+४+४९+५०=१९४) एक सौ चौरानवै रसाविभाग प्राप्त होते हैं । इससे आगे एक-एफ की उत्तरवृद्धि से रसाविभाग प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु सर्व जीवों से अनन्तगुणे अधिक रसाविभाग प्राप्त होते हैं । ____ उनको असत्कल्पना से सत्तावन (५७) मानें तो ये दूसरे अनुभागबंधस्थान के दूसरे स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के रसाविभाग हैं। इससे आगे दूसरी वर्गणा में अट्ठावन (५८), तीसरी वर्गणा में उनसठ (५९) और चौथी वर्गणा में साठ (६०) रसाविभाग होते. हैं । इस प्रकार इस द्वितीय स्थान के दूसरे स्पर्धक में (५७+५८+ ५९+ ६० =२३४) दो सौ चौंतीस .रसाविभाम. प्राप्त होते हैं। इससे आगे. एक-एक की उत्तरवृद्धि से रसाविभाग प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु सर्व जीवों से अनन्तगुणे अधिक प्राप्त होते हैं.। ... ... . उन्हें असत्कल्पना से सड़सठ (६७) मान लिया जाये। ये साड़सठ दूसरे अनुभागबंधस्थान के तीसरे स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के साविभाग हैं। इससे माझे दूसरी वर्गणा में अड़सठ (६८), तीसरी वर्गणा में उनहत्तर (६९) और चौथी वर्गणा में सत्तर (७०) रसाविभाग होते हैं। इस प्रकार इस दूसरे अनुभागबंधस्थान के तीसरे स्पर्धक में (६७+६+६९+७० =२७४) दो सौ चौहत्तर रसाविभाग प्राप्त होते हैं । उससे आगे फिर, एक-एक की उत्तरवृद्धि में रसाविभाग प्राप्त नहीं होते हैं । किन्तु सर्व जीवों से अनन्तगुणे अधिक प्राप्त होते हैं। .. ., .... उनको- असस्कल्पना से सतत्तर (७७) मान लें । मे दूसरे, अनुभागबंधस्थान के चौथे स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के रसमविभाग हैं। इससे आमे दूसरी कर्मणा में अठत्तर (७८), तीसरी, १. असत्कल्पना से चार वर्गणा का एक स्पर्धक और चार स्पर्धनों का एक स्थान, इस तरह वर्मगा और स्पर्धक की समसंख्या रखने का कारण यह है कि वास्तविक अनुभागस्थानों में भी जितनी वर्ममाओं का स्पर्धक होता है, उतने स्पर्धकों का एक अनुभागस्थान होता है। अतः वर्गणा कोर स्पर्वका की समसंख्या कही है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy