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________________ बंधनकरण इनकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होती है। किन्तु ये तीनों समान स्थिति वाले होने से स्वस्थान में इन तीनों कर्मों को भाग समान ही प्राप्त होता है। इनसे भी मोहनीय का भाग अधिक बड़ा होता है। क्योंकि उसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोंडाकोडी सागरोपम प्रमाण होती है। वेदनीय कर्म यद्यपि ज्ञानावरण आदि कर्मों के साथ समान स्थिति वाला है, तथापि उसका भाग सर्वोत्कृष्ट ही जानना चाहिये, अन्यथा वह अपने सुख-दुःख रूप फल को स्पष्टता के साथ अनुभव नहीं करा सकता है।' उत्कृष्टपद में उत्तरप्रकृतियों के प्रदेशाग्नों का अल्पबहुत्व ___ अब (इन मूल प्रकृतियों की) अपनी-अपनी उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्टपद और जघन्यपद में अल्पबहुत्व बतलाते हैं। उत्कृष्टपद में इस प्रकार जानना चाहिये-- १. ज्ञानावरणकर्म-केवलज्ञानावरण का प्रदेशाग्र (प्रदेशों का समूह) सबसे कम है। उससे मनःपर्ययज्ञानावरण का प्रदेशाग्र अनन्तगुणा, उससे अवधिज्ञानावरण का प्रदेशाग्र विशेषाधिक, उससे श्रुतज्ञानावरण का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है और उससे मतिज्ञानावरण का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है। २. दर्शनावरणकर्म-उत्कृष्टपद में प्रचला का प्रदेशाग्र सबसे कम है, उससे निद्रा का विशेषाधिक है, उससे भी. प्रचला-प्रचला का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे भी निद्रा-निद्रा का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे भी स्त्यानद्धि का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे भी. केवलदर्शनावरण का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे भी अवधिदर्शनावरण का प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है, उससे अचक्षुदर्शनावरण का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है और उससे भी चक्षुदर्शनावरण का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है। . ३. वेदनीयकर्म-उत्कृष्ट पद में असातावेदनीय का प्रदेशाग्र सबसे कम है। उससे सातावेदनीय का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है। ... ४. मोहनीयकर्म-उत्कृष्ट पद में अप्रत्याख्यानावरण मान का प्रदेशाग्र सबसे कम है। उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे अप्रत्याख्यानावरण माया का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे अप्रत्याख्यानावरण - लोभ का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे प्रत्याख्यानावरण मान का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे प्रत्याख्यानावरण क्रोध का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे प्रत्याख्यानावरण माया का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे प्रत्याख्यानावरण लोभ का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे अनन्तानुबंधी मान का प्रदेशाग्र विशेषाधिक, उससे अनन्तानुबंधी क्रोध का प्रदेशाग्र विशेषाधिक, उससे अनन्तानुबंधी माया का प्रदेशाग्र विशेषाधिक, उससे अनन्तानुबंधी लोभ का प्रदेशाग्र विशेषाधिक, उससे मिथ्यात्व का प्रदेशाग्र विशेषाधिक है, उससे वेदनीय कर्म को अधिक भाग मिलने का कारण यह है कि सुख और दुःख के निमित्त से वेदनीय कर्म की निर्जरा बहुत होती है। अर्थात् प्रत्येक जीव प्रति समय सुख या दु:ख का वेदन करता रहता है, अतः वेदनीय कर्म का उदय प्रतिक्षण होने से उसकी निर्जरा भी अधिक होती है। इसी से उसका द्रव्य सबसे - अधिक बताया गया है। .. .. .! २. उससे पूर्व में बताई गई प्रकृति की अपेक्षा । इसी प्रकार आगे भी 'उससे का अर्थ समझना चाहिये।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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