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________________ कर्मप्रकृति कार्मण रूप अथवा वैक्रियचतुष्क एवं तैजसत्रिक रूप सात बंधनों को बांधते हुए सात भाग किये जाते हैं और वैक्रियचतुष्क, आहारकचतुष्क और तैजसत्रिक ' लक्षण वाले ग्यारह बंधनों को बांधने पर ग्यारह भाग किये जाते हैं। पूर्वोक्त प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष प्रकृतियों को जो-जो दलिफभाग प्राप्त होता है, वह पुनः विभाजित नहीं किया जाता है। क्योंकि उनके जो अवान्तर भेद हैं, उनमें से दो, तीन आदि भेदों का एक साथ बंध नहीं होता है, एक का ही बंध होता है। इसलिए उनको वह पूरा का पूरा दलिकभाग प्राप्त होता है। प्राप्त दलिकों के अल्पबहुत्व का कथन यहाँ एक अध्यवसाय की मुख्यता से गृहीत कर्मदलिक के स्कन्धों का विभाग करके उसे मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियों में देना बताया गया है। परन्तु यह नहीं बताया गया है कि किस प्रकृति को उत्कृष्ट या जघन्य पद में कितना भाग दिया गया है ? इसलिये इस विशेषता को बताने के लिये गाथा में 'मुलपगईणं' इत्यादि पद कहा है। उसका यह अर्थ है कि इन मूलप्रकृतियों ! और उत्तरप्रकृतियों का परस्पर भागसम्बन्धी जो विशेष भेद है, उसे शास्त्रान्तरों में कहे गये अल्पबहुत्व से जानना चाहिये। उनमें से पहले मूलप्रकृतियों का अल्पबहुत्व बतलाते हैं मूल कर्मों को उनकी स्थिति के अनुसार भाग प्राप्त होता है। अर्थात् जिस कर्म की स्थिति बड़ी होती है, उसे बड़ा भाग मिलता है और जिसकी स्थिति थोड़ी होती है, उसे थोड़ा (अल्प) भाग मिलता है। २ इस दृष्टि से आयुकर्म को सबसे कम भाग प्राप्त होता है, क्योंकि उसकी सब कर्मों से थोड़ी स्थिति है। 'आयुकर्म की स्थिति उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम प्रमाण है। आयुकर्म की अपेक्षा नाम और गोत्र कर्म को अधिक बड़ा भाग प्राप्त होता है। क्योंकि इन दोनों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होती है। किन्तु इन दोनों कर्मों का भाग स्वस्थान में परस्पर तुल्य होता है। क्योंकि ये दोनों कर्म समानस्थिति वाले हैं। इन दोनों कर्मों से भी अधिक बड़ा भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को प्राप्त होता है। क्योंकि १. वैक्रिय-वैक्रिय, वैक्रिय-तैजस, वैक्रिय-कार्मण और वैक्रिय-तैजसकार्मण को वैक्रिय-चतुष्क तथा तैजस-तैजस, तैजसकार्मण और कार्मण-कार्मण को तेजस-त्रिक कहते हैं । आहारक-चतुष्क भी वैक्रिय-चतुष्कवत् समझना चाहिये । स्थिति के अनुसार अल्पाधिक भाग मिलने के प्रसंग में यह विचारणीय है कि यह कथन स्थूल दृष्टि से उपयुक्त हो सकता है, परन्तु वस्तुस्थिति की अपेक्षा अध्यवसायों से भागों का मिलना अधिक संबंधित है। क्योंकि कार्यमात्र के प्रति अध्यवसायों की मुख्यता है। किसी स्थल पर अध्यवसायों को गौण कर कालमर्यादा को मुख्यता दी गई हो तो यह मुख्यता ज्ञान कराने की दृष्टि से समझना चाहिये। क्योंकि अध्यवसायों की धारा अनुस्यूत रूप से निरन्तर चलती रहती है। इस दृष्टि से कर्मदलिकों में भागों का विभाजन भी निर्भर करता है। इससे अध्यवसायों की मुख्यता ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होती है। इसीलिये पूर्व में (गाथा २४ की टीका में) एक अध्यवसाय की विचित्रता का संकेत किया गया है। तदनुसार सर्वत्र अध्यवसाय की दृष्टि मुख्य रूप से गृहीत होती है। जिसका फलितार्थ यह निकलता है कि अध्यवसायों के अनुपात से कर्म-दलिकों का मिलना संभावित है, बिना अध्यवसाय के सिर्फ स्थिति के अनुसार ही प्रकृतियों को उनका भाग प्राप्त हो, यह उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है। इस विषय में विद्वज्जनों के विचार आमंत्रित हैं। अध्यवसाय की दाम-दलिकों का मिलना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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