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________________ बंधनकरण ७५ वे जन्म लेने के प्रथम समय से ही निरन्तर उद्वलना' किये जाने से अत्यन्त असार है, इसलिये उनकी विवक्षा नहीं की गई है। . उस जघन्य बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा से दो परमाणु अधिक स्कन्धरूप दूसरी बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा होती है। इस प्रकार एक-एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप वर्गणायें तब तक कहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा प्राप्त होती है। जघन्य से उत्कृष्ट वर्गणा क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातचे भाग रूप गुणाकार से असंख्यात गुणी है। यहाँ पर भी गुणाकार की युक्ति प्रत्येकशरीरीद्रव्यवर्गणा के समान जानना चाहिये। इससे आगे एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप जघन्य तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणा प्राप्त होती है और उससे आगे एक-एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप वर्गणायें तब तक जानना चाहिये, जब तक कि उत्कृष्ट तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणा प्राप्त होती है। जघन्य वर्गणा से उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यातगुणी होती है। यहाँ गुणाकार अंगुलमात्र क्षेत्र में आवलिका के असंख्यातवें भाग में स्थित जितने समय होते हैं, उतने समयप्रमाण वर्गमूलों के ग्रहण करने पर जो अंतिम वर्गमूल आता है, उसके असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने प्रदेश-प्रमाण वाला जानना चाहिये। ____इससे आगे एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप जो वर्गणा प्राप्त होती है, वह जघन्य सूक्ष्मनिगोदवर्गणा है। उसे भी औदारिक शरीरादि आश्रित विश्रसोपचित पुद्गल रूप बादरनिगोदवर्गणा के -समान बिना किसी विशेषता के जानना चाहिये और उसी के समान एक-एक परमाणु अधिक करते हुए उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा प्राप्त होती है। जघन्य से उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यात गुणी है और गुणाकार आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, तावत् प्रमाण जानना चाहिये। क्योंकि सूक्ष्मनिगोद जीवों का उत्कृष्ट योगस्थान जघन्य योगस्थान से आवलिका के असंख्यात भाग से गुणित ही प्राप्त होता है, अधिक नहीं। इसका कारण यह है कि कर्मप्रदेशों के उपचय में वृद्धि होना योगाधीन है और उसके अधीन सूक्ष्मनिगोदवर्गणा है-योगाधोना च कर्मप्रदेशोपचयवृद्धिः, तदाधीना च सूक्ष्मनिगोदवर्गणेति । इससे आगे एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप जो वर्गणा प्राप्त होती है, वह चौथी जघन्य ध्रुवशून्यवर्गणा है। उसके आगे एक-एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप वर्गणायें तब तक कहना चाहिये, जब तक कि उत्कृष्ट चौथी ध्रुवशून्यवर्गणा प्राप्त होती है। जघन्य से उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यातगुणी है। यहाँ गुणाकार प्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती असंख्यात श्रेणीगत आकाश की. प्रदेशराशि प्रमाण है। १. यथार्थतया तो आहारकसप्तक की उद्वलना अविरतिपने के प्रथम समय से होने लगती है। उद्वलनकाल ___पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाणं होने से बादर निगोद में प्रतिपन्न भाव की अपेक्षा भव के प्रथम समय से भी कहा जा सकता है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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