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________________ कर्मप्रकृति अधिकृत है। सलेश्य जीव के वीर्य का विचार करना यहाँ प्रयोजनीय है । इस प्रकार गाथा रूप सूत्र की सोपस्कार व्याख्या करना चाहिये ।' यह वीर्य (सलेश्य वीर्य) दो प्रकार का है-छाद्मस्थिक और केवलिक । यह दोनों ही प्रकार का प्रत्येक वीर्य अकषायी और सलेश्य होता है । इनमें छाद्मस्थिक अकषायी सलेश्य वीर्य उपशान्तमोह और क्षीणमोह गणस्थान वालों के और केवलिक वीर्य सयोगि केवलियों के होता है। छाद्मस्थिक काषायिक वीर्य सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के जीवों के होता है और केवलिक अलेश्य वोर्य योगि केवलियों और सिद्धों के होता है । परन्तु यहाँ पर जो सलेश्य वीर्य है, वही ग्रहण किया गया है । क्योंकि वही कर्मबंधादि का कारण है । सूक्ष्म और वादर जीवों के परिस्पन्दन रूप (हलन-चलन रूप) क्रियात्मक वीर्य होता है, वह 'योग' इस नाम से कहा जाता है ।' ___ योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति और सामर्थ्य, ये सब योग के पर्यायवाची नाम है । - अब इसी योग के कार्यभेद से संज्ञाभेद को और जीव प्रदेशों में तारतम्य से अवस्थान होने के कारण को कहते हैं । परिणामालंबणगहणसाहणं तेण लद्धनामतिगं। कज्जब्भासन्नोन्नप्पवेसविसमीकयपएसं ॥४॥ शब्दार्थ-परिणामालंबणगहणसाहणं-परिणाम, आलंबन और ग्रहण में साधन रूप, तेण-उससे, लद्धनामतिगं-तीन नाम प्राप्त किये हैं, कज्जब्भास-कार्य की निकटता, अन्नोन्नप्पवेस-अन्योन्य के प्रवेश, विसमीकय-विषम किये हैं, पएसं-जीवप्रदेश। गाथार्थ--परिणाम, आलंबन और ग्रहण में साधन रूप होने से योग ने तीन नाम प्राप्त किये हैं तथा जिसके द्वारा कार्य की निकटता और अन्योन्य के प्रवेश से जीवप्रदेश विषम किये जाते हैं, ऐसा योग है । विशेषार्थ--वह वीर्य परिणाम, आलंबन और ग्रहण का साधन है, इस कारण उसने सार्थक तीन नाम प्राप्त किये हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- ___उस योग संज्ञा वाले वीर्यविशेष के द्वारा जीव सर्वप्रथम औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और ग्रहण करके औदारिक आदि शरीर रूप से परिणमित करता है तथा इसी प्रकार पहले प्राणापान (श्वासोच्छ्वास), भाषा और मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और फिर ग्रहण करके उन्हें प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) आदि रूप से परिणमित १. जीवों की वीर्यशक्ति का विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये। २. जोगो विरयं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्टा। सत्ती सामवथं चिय, जोगस्स हवंति पज्जाया ।। -पंचसंग्रह, बंधनकरण गा. ४
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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