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________________ ४९ ८. 'कल' धातु बंधन के अर्थ में है ( कव् बंधने, नितरां कच्यते ) अर्थात् जो अत्यधिक रूप से स्वयं ही बंध को प्राप्त होता है, ऐसा तथाविव संक्लिष्ट अध्यवसाय रूप जीव का जो कर्म है, उसे जो प्रयोग करता है अर्थात् जीव ही तथानुकूल हो जाता है, इस प्रकार के प्रयोक्तृव्यापार में 'णि' प्रत्यय किया गया है, तदनुसार यह अर्थ होता है कि निकाच्यते सकलकरणायोग्यत्वेनावश्यवेद्यतया व्यवस्थाप्यते कर्म जीवेन यया सा निकाचना -- जिस वीर्यविशेष की परिणति के द्वारा कर्म निकाचित किया जाये अर्थात् सकल करणों से अयोग्य करके ( यथारूप में ) अवश्य वेदन करने की योग्यता रूप से स्थापित किया जाये, उसे निकाचनाकरण कहते हैं । अथवा 'कच् बंधने' यह धातु चुरादिगणपठित भी है, उसका यह रूप (निकाचन ) है । गाथा में आगत 'च' शब्द समच्चय के अर्थ में है और 'ति- इति' शब्द समाप्ति का बोधक है कि ये करण इतने ही हैं, अर्थात् आठ ही होते हैं, अधिक नहीं। यानी बंध, संक्रम आदि कार्यों 'आठ प्रकार होने से उनके करण भी आठ ही होते हैं । बंधनकरण अभि के अनुसार अव ग्रंथकार आठ करणों में से पहले बंधनकरण का विवेचन प्रारंभ करते हैं 1 १. बंधनकरण बीर्य का स्वरूप उपर्युक्त बंधन आदि आठों करण जीव के वीर्यविशेष रूप हैं, अतः अब वीर्य के स्वरूप का निरूपण किया जाता है। विरियंतराय देसक्खएण सव्वक्खएण जा लखी । अभिसंधिजमियरं वा तत्तो विरियं सलेसस्स ||३|| शब्दार्थ -- विरियंत रायदे सक्खरण - वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय से, सव्वक्खएण - सर्वक्षय से, जाजो, लद्धी-ब्धि, अभिसंधिजं - अभिसंधिज, इयरं - इतर (अनभिसंधिज), वा - अथवा, तत्तो-उससे,बिरियंबीर्य, सलेसस्स - लेश्या सहित जीव का । गाथार्थ -- वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय से और सर्वक्षय से जो वीर्यलब्धि उत्पन्न होती है। उसमें सश्य लेश्या सहित जीव की वीर्यलब्धि अभिसंधिज और इतर - अनभिसंधिज होती है । विशेषार्थ -- वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय से अथवा सर्वक्षय से प्राणियों को वीर्यलब्धि उत्पन्न होती है । उसमें से वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय से छद्मस्थों को और सर्वक्षय से केवलियों को वीर्यलब्धि प्रगट होती है । उस क्षायिक और क्षायोपशमिक रूप वीर्य के संयोग से सालेश्य ( लेश्या वाले) जीव के उत्पन्न होने वाले वीर्य के दो प्रकार हैं- अभिसंधिज, अनभिसंधिज । अभिसंधिज वीर्य का बुद्धिपूर्वक दौड़ने-कूदने आदि क्रियाओं में उपयोग किया जाता है और इतर (अनभिसंधिजअबुद्धिपूर्वक, स्वाभाविक ) खाए हुए आहार का धातु, मल आदि के रूप में परिणमन कराता है । अथवा एकेन्द्रियादिक जीवों के योग्य क्रियाओं का जो कारण होता है, वह अनभिसंधिज है । वह भी यहाँ
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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