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________________ दृष्टांत : १७-१८ नहीं हैं ! यह बात सुनकर तीनों साधुओं ने स्थानक पर आकर भारमलजी स्वामी को सब समाचार सुनाए । o यहां से विहार कर देना नहीं तो ३०३ भारमलजी स्वामी ने जयपुर आकर चतुर्मास किया और हेमराजजी स्वामी ने माधोपुर की तरफ विहार किया । २२ कोश तक गए। आगे नदी बहती देखी, तब मन में विचार किया किशनगढ़ में वेषधारियों ने अन्हाख / बहुत कदाग्रह किया । तो चौमासा किशनगढ़ में हो तो ठीक रहे, ऐसा सोच वापस विहार कर किशनगढ़ पधारे । दो स्थानों पर आज्ञा लेकर एक दुकान में उतरे । । बाद में वेषधारियों ने उस दुकान वालों को सिखलाकर जगह छुड़वा ली । तब दूसरी दुकान में आज्ञा लेकर विराज गए । विरोधियों ने वहां पर पृथ्वीकाय बिखेर दी। तब उम्मेदमल सरावगी की दुकान में आज्ञा लेकर ठहरे। तब वेषधारी आकर बोला- तुम तेरापंथी दगादार हो, हमारे पण्डित - पण्डित तो विहार कर गये और तुम छल करके आए हो । या तो यहां से विहार कर जाओ, नहीं तो पात्र बाजार में ठोकरें खाएंगे । बोला हेमजी स्वामी ने यह सुनकर भी मौन रखी । चतुर्मास लगा । व्याख्यान में लोग खूब आते पर संवत्सरी पर एक भी पौषध नहीं हुआ। बाद में लोग समझे | दीवाली पर पांच पौषध हुए । जयपुर में ये सामाचार सुनकर वेषधारी तो अप्रसन्न हुए और भारमलजी स्वामी प्रसन्न हुए । सं० १८६९ का चतुर्मास किशनगढ़ किया, उसके बाद क्षेत्र की नींव लगी । १७. शुभ योग संवर किस न्याय से ? यां में राजमलजी बोहरा रतनजी के पास गए। चर्चा के प्रसंग में रतनजी शुभ योग, संवर है । तब राजमलजी ने कहा संवर का स्वभाव तो कर्म रोकने का है । और शुभ रुकते नहीं इसलिए शुभ योग संवर किस न्याय से ? शुभ योग प्रवर्तमान हो उस समय अशुभ योग के कर्म नहीं लगते, इस न्याय से शुभ योग संवर । योग से तो पुण्य बंधते हैं, तब रतनजी बोला तब राजमलजी बोहरा बोला इस हिसाब से तो अशुभ योग को ही संवर कहो, अशुभ योग प्रवर्तमान हो उस समय शुभ योग के कर्म नहीं लगते उस हिसाब से । तब रतनजी बोला- सूत्र में तो अयोग संवर ही कहा है । हमारी परंपरा से शुभ योगों को संवर कहते हैं । १८. धर्म हुआ या पाप ? भगवानदासजी प्रसिद्ध नगरसेठ । संवेगियों की श्रद्धा । उन्होंने पाली में रतनजी पूछा - कच्चे पानी के लोटे में मक्खी पड़ गई उसे बाहर निकाले उसको धर्म हुआ या पाप ? से तब रतनजी उत्तर देने में अटक गए। धर्म बतलाए तो हिंसा धर्म, देहरापंथियों
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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