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________________ ३०२ श्रावक दृष्टांत भारमलजी स्वामी ९ साधुओं के साथ किशनगढ़ पधारे। नये शहर में उतरे । चर्चा के लिए बगीची का स्थान निश्चित हुआ । नानगजी, उगराजी, अमरसिंहजी इत्यादि के ३५ साधु चर्चा के लिए आए । ९ साधुओं से भारमलजी स्वामी पधारे। सैंकड़ों लोग इकट्ठे हो गए । आश्रव की चर्चा चली । और भारमलजी कर्मों को ग्रहण नानगजी के शिष्य निहालजी ने तो कहा आश्रव अजीव है स्वामी ने कहा--आश्रव जीव है, कर्मों को ग्रहण करे, वह आश्रव । करे वह तो जीव है, अजीव तो कर्मों को ग्रहण करता नहीं। फिर ने कहा –गृहस्थ तो आश्रवी और साधुपन लेने के बाद साधु वह तो भारमलजी स्वामी संवरी होता है । श्रव को अजीव कहते हो तो क्या अजीव का जीव हो गया ? साधु भ्रष्ट होकर गृहस्थ हो गया तो क्या साधु संवरी जीव था वह गृहस्थ आश्रवी हो गया तो क्या जीव का अजीव हो गया ? इस प्रश्न से निरुत्तर हो गए। सही उत्तर नहीं दे सके । तब 'साधु को अजीव कहते हैं, साधु को अजीव कहते हैं' ? इस प्रकार हल्ला मचाते हुए उठ गए । भारमलजी स्वामी भी अपने स्थान पर पधार गए । • ये चर्चा के योग्य नहीं । भारमलजी स्वामी की आज्ञा लेकर खेतसीजी स्वामी, हेमजी स्वामी और रायचंदजी स्वामी गोचरी पधारे। तब जिनचंदसूरी ने ब्राह्मण को भेजकर उन्हें उपाश्रय में बुलाया । साधुओं को आते देखकर श्री पूज्य पट्ट से नीचे उतरकर आंगन पर बैठे । साधुओं को बिठाकर बोले- आप इनसे चर्चा करते हैं पर ये चर्चा करने योग्य नहीं हैं। एक दृष्टांत सुनो:-- एक साहूकार की हवेली में दो साधु गोचरी गए । ऊपर पेड़ियों की नाल चढ़ते समय वहां अंधेरा देखकर वे वापस लौट गए। ऊपर से गृहस्थ आवाज देता है- ऊंचे पधारो, ऊंचे पधारो । पर साधु तो वापस चले गए । थोड़ी देर के बाद दो साधु फिर आए । ऊपर जाकर आहार- पानी लिया । गृहस्थ बोला-- पहले दो साधु आए, वे तो वापस चले गए, और आप ऊपर पधारे । तब वे बोले -- वे तो पाखण्डी थे । पाखण्ड कर गए ऐसा कह कर वे भी चले गए । थोड़ी देर बाद दो साधु फिर आए, तब गृहस्थ बोला- दो साधु पहले आये वे तो सीढ़ियों से ही वापस चले गए, उसके बाद दो साधु आये, भिक्षा ली और उनको पाखंडी कहकर चले गए और अब आप आए हो । तब वे साधु बोले - पहले आए, वे तो असली साधु, जो अंधारा देखकर वापस लौट गए। उसके बाद दो साधु आए वे हीन आचारी, दोहरे मूर्ख स्वयं तो पालते नहीं और जो पालते हैं, उनसे द्वेष निंदा करते हैं और हमसे तो पूरा साधुपन पलता नहीं । वेष की ओट में रोटी मांग कर खाते हैं । पहले आए वे धन्य हैं। ऐसा कहकर वे भी चले गए । श्री पूज्यजी ने उदाहरण समेटते हुए कहा- पहले की तरह तो आप दूसरे वालों ज्यों ये मठधारी, स्थानक बांधकर बैठे वे और तीसरे वालों ज्यों हम । हम से पूरा साधुपन नहीं पलता है । इसलिए तुम इनसे चर्चा करते हो, पर ये चर्चा करने लायक
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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