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________________ २९२ दुष्ट २४. अंत में संथारा करेंगे गृहस्थपन के समय हेमजी स्वामी को एक पुष्कर्णा, ब्राह्मण उलटा-सीधा बोलते हुए कहने लगा---- -"तुम भीखणजी के श्रावक हो सो अन्न बिना मरोगे" तब हेमजी स्वामी ने इस बात को सही रूप में लेते हुए कहा- हम भीखणजी के श्रावक हैं, अतः अंत में संथारा करेंगे । इसलिए ठीक बात है अन्न बिना ही मरेंगे। यह सुनकर वह निरुत्तर होकर चलता बना । २५. पहले पुन्य, पीछे निर्जरा खेतसीजी से किसी ने पूछा - शुभ योगों की प्रवृत्ति होती है उस समय पहले पुन्य बंधता है या निर्जरा होती है ? तब खेतसीजी स्वामी ने उदाहरण देते हुए पूछा- पहले पान होता या धान ? तब वह बोला --पहले पान होता है उसके बाद धान । खेतसी स्वामी - उसी तरह शुभ योगों की प्रवृत्ति होती है तब पहले समय में ही पुन्य बंधते हैं । उस समय अशुभ कर्म चलित तो होते हैं, परन्तु झड़ते अगले समय में हैं । भगवती शतक - १ में कर्म के चलित होने का तथा निर्जरण होने का समय अलग-अलग बतलाया है उस कारण से पहले पुन्य बंधता है और पीछे निर्जरा होती है, ऐसा कहा है । २६. शुभ योग आश्रव या निर्जरा किसी ने पूछा -शुभ योग आश्रव है या शुभ योग निर्जरा ? तब खेतसी स्वामी ने कहा -शुभ योग आश्रव भी है और शुभ योग निर्जरा भी है । तब वह बोला- वस्तु तो एक शुभ योग, उसे आश्रव और निर्जरा दोनों कैसे कहा जाता है । किसी एक ही व्यक्ति को बाप भी तब खेतसीजी स्वामी ने दृष्टांत देकर कहा कहते हैं और बेटा भी कहते हैं । वह कैसे ? अपने बाप की अपेक्षा से वह बेटा कहलाता है और अपने बेटे की अपेक्षा से वह बाप कहलाता है । उसी तरह शुभ योग से पुन्य भी बंधते हैं और अशुभ कर्म भी झड़ते हैं पुन्य बंधते हैं इस अपेक्षा से शुभ योग आश्रव है और अशुभ कर्म झड़ते हैं इस अपेक्षा से शुभ योग निर्जरा है । उत्तराध्ययन अ० ३४ गा० ५७ में तेजू, पद्म, शुक्ल लेश्या को धर्मलेश्या कहा है और छहों लेश्याओं को कर्म लेश्या भी कहा है । तेजू, पद्म और शुक्ल लेश्या से पुन्य बंधते हैं उस अपेक्षा से कर्म लेश्या और तेजू, पद्म और शुक्ल से अशुभ कर्म झड़ते हैं, इस अपेक्षा से धर्म लेश्या कहा है । धर्म लेश्या कहो भले निर्जरा कहो, कर्म लेश्या को भले आश्रव कहो । २७. सम्यग्दृष्टि की मति : मतिज्ञान खेतसीजी स्वामी बोले- भगवती और रामचरित्र को साधु गाते हैं । मैं उसे बराबर मानता हूं, क्योंकि साधु सत्य भाषा बोलते हैं । उनके सावद्य पापकारी भाषा बोलने का त्याग है । नंदी सूत्र में कहा है - सम्यग् दृष्टि की मति, मतिज्ञान ही है, इस अपेक्षा से ।
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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