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________________ २३० भिक्खु दृष्टांत को सजीव, अजीव; शुद्ध, अशुद्ध, दान देने में एकांत पाप है।' इस न्याय से उपदेश काल में 'जैसा फल होता है, वैसा' बताकर, उन्हें समझा (उनके संकल्पानुसार) दीक्षा दे देनी चाहिए। २८६. सामायिक को धक्का देकर थोड़े ही 'पराते' (गिराते) हैं ? कुछ कहते हैं- “साधु सामायिक को 'पराते' नहीं-समाप्त नहीं कराते, तो उसे पूरा कराने का पाठ क्यों सिखलाते हैं ?" तब स्वामीजी बोले-“साधु सामायिक को 'पराते' नहीं, सो क्या उसे धक्का देकर थोड़ा ही गिराते (पराते) हैं ? एक मुहूर्त के लिए सामायिक किया और एक मुहूर्त का काल पूरा होने पर सामायिक अपने आप पूरा हो गया। उसे 'पारता' (समाप्त करता) है, वह तो दोषों और अतिचारों की आलोचना करता है। वह आलोचना भगवान की आज्ञा में हैं। इसलिए 'पारने' का पाठ सिखलाते हैं; किन्तु वर्तमान काल में उसे 'पराते' नहीं हैं; क्योंकि सामायिक पूरा करने पर वह उठकर चला जाएगा । इस दृष्टि से उसे पूरा नहीं कराते । परन्तु दोष की आलोचना कराने और उसका पाठ सिखाने में कोई आपत्ति नहीं है । २८७. यही भाव से भक्ति करेगा एक व्यक्ति स्वामीजी से चर्चा करते समय अंट-संट बोलता था। तब स्वामीजी से किसी ने कहा--"महाराज ! यह अंट-संट बोलता है, उससे आप क्या चर्चा करते - स्वामीजी बोले-"छोटा बच्चा जब तक नहीं समझता है, तब तक वह अपने पिता की मूंछ को खींचता है और उसकी पगड़ी को भी उतार फेंकता है । किन्तु समझ माने के बाद वही अपने पिता की सेवा-चाकरी करता है। इसी प्रकार यह जब तक साधुओं के गुणों को नहीं पहिचानता है, तब तक अंट-संट बोसता है । गुण की पहिचान होने के बाद यही भाव से भक्ति करेगा। २८८. अभी पंचांग का भाव तेज हैं हम रात्री को व्याख्यान देते और अमुक संप्रदाय के साधु भी रात्री को व्याख्यान देते। हम बाजार में ठहरते; और देखा-देखी वे भी बाजार में ठहरते। इस प्रकार देखा-देखी काम करते हैं, पर शुद्ध मान्यता और आचार के बिना काम सिद्ध नहीं होता। इस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया--"एक साहकार था। वह स्वयं समझदार नहीं था। वह पड़ोसी की देखा-देखी व्यापार करता था। पड़ोसी जो वस्तु खरीदता, उसे वह भी खरीद लेता। जब पड़ोसी ने सोचा-'यह मेरी देखा-देखी कर रहा है या इसमें स्वयं की समझ है ?' तब पड़ोसी ने अपने बेटे से कहा---'अभी पंचांगों के भावों में तेजी है; इसलिए परदेशों से पंचांग हमें खरीद लेने हैं। थोड़े दिनों में दुगुने दाम उठ जाएंगे।' ____ साहूकार ने यह बात सुनी और वह परदेश में जा, नए और पुराने पंचांगों को खरीद लाया। उसकी पूंजी नष्ट हो गई। इसी प्रकार अमुक संप्रदाय के साधु भी साधुओं की देखा-देखी काम करते हैं
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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