SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ भिक्खु दृष्टांत दो पहियों के आने-जाने की लीक के बीच में किसी खरगोश ने अपना घर बसाया! बैल-गाड़ियों के आते-जाते समय उस खरगोश के सिर पर गाड़ी के नीचे बान्धी हुई रस्सी की चोट लगती । फिर भी वह उस स्थान को नहीं छोड़ता था। इतने में दूसरे खरगोश ने कहा- "यहां तुम्हारे सिर पर चोट लगती है, इसलिए इस स्थान को तुम छोड़ दो।" वहां रहने वाला खरगोश बोला-परिचित स्थान छूटता नहीं है। इसी प्रकार सच्चे सिद्धांत का रहस्य समझ में आ गया, फिर भी पूर्व परिचित कुगुरु का संग छूट नहीं पाता। २७२. वह हिंसा का कामी हो चुका सम्वत् १८५५ की घटना है। पाली में हेमजी स्वामी टीकमजी से चर्चा कर रहे थे, तब एक महेश्वरी बोला-"सपेरे को चार पैसा देकर उससे किसी सर्प को मुक्त कराया, उसमें क्या हुआ ?" तब टीकमजी बोला-"अच्छा धर्म हुआ।" तब वह महेश्वरी बोला--"वह सर्प सीधा चूहों के बिल में गया।" तब टीकमजी बोला-"बिल में चहा यदि नहीं होगा तो?" यह बात हेमजी स्वामी ने स्वामीजी के पास आकर कही । तब स्वामीजी बोले-"किमी ने कौए पर गोली चलाई । कोआ उड़ गया । कौए का आयुष्य शेष था, पर गोली चलाने वाले को तो पाप लग चुका। इसी प्रकार सांप को मुक्त कराया और वह चूहों के बिल में गया । यदि बिल में चूहा नहीं है तो वह उसका भाग्य है, पर सर्प को मुक्त कराने वाला तो हिंसा का कामी हो चुका।" भीखणजी स्वामी ने हेमजी स्वामी को कहा-"तुम्हें इस प्रकार का उत्तर देना था।" २७३. व्याख्यान कण्ठस्थ कर हेमजी स्वामी ने दीक्षा लेकर दशवकालिक कंठस्थ किया; उसके बाद उत्तराध्ययन सूत्र कंठस्थ करने लगे। तब स्वामीजी बोले-"तू अच्छा गा सकता है। इसलिए व्याख्यान कंठस्थ कर । वास्तव में उपकार तो व्याख्यान से होता है।" ऐसी थी उस महापुरुष की उपकार की नीत । २७४. हमारे पास व्याख्यान कम थे भारमलजी स्वामी ने हेमजी से कहा-"हम बाईस टोला से अलग हुए, तब कुछ वर्षों तक चतुर्मास में अंजना और देवकी का व्याख्यान तीन-तीर बार वांचते, क्योंकि उस समय हमारे पास व्याख्यान बहुत कम थे।" २७५. नवी के दो तटों पर सम्वत् १८२४ की घटना है। भीखणजी स्वामी ने चतुर्मास कंटालिया में किया और भारमलजी स्वामी का चतुर्मास बगड़ी में कराया। दोनों के बीच में नदी
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy