SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ भिक्खु दृष्टांत बेचने की साई (अग्रिम राशि ) ली, उन्हें साथ लाया और कोठा खोला। उसके भीतर खाद निकली । तब वह रोने लगा । उसके देखादेखी लोग भी रोने लगे । 'देखो ! बेचारे के गेहूं निकलना था, और खाद निकली' - यह कहकर बे रोने लगे । 'तब किसी समझदार ने पूछा- अरे ! तू ने इस कोठे के भीतर डाला क्या था ? ' तब वह रोता हुआ बोला- 'मैंने डाली तो खाद ही थी ।' तब वह बोला--' तूने खाद डाली थी, तो गेहूं कहां से निकलेगा ? इसी प्रकार जीव ने जैसे पुण्य पाप का बन्ध किया है वैसा ही उदय में भाएगा। विलाप करने से क्या होगा ? २६६. दान-दया का लोप कर दिया चेलावास के ठाकुर का नाम था जुझारसिंहजी । आचार्य रुघनाथजी उनके पास जाकर बोले - " भीखण, जो मेरा चेला है, वह बकरों को बचाने में पाप बतलाता है । उसने दान और दया का लोप कर दिया | तब स्वामीजी ने आकर उनसे कहा- "ठाकर साहब ! कलाल के घर का पानी साधु को लेना चाहिए या नहीं ?" तब ठाकुर बोले -" कलाल के घर का पानी तो साधु को नहीं लेना चाहिए ।" तब स्वामीजी बोले - "इनको पूछें, ये लेते हैं या नहीं ?" तब आचार्य रुघनाथजी वहां से उठकर चले गए । २६७. ऐसा अर्थ क्यों लिखा जाए ? 11 दोच की घटना है। आचार्य रुघनाथजी स्वामीजी से चर्चा कर रहे थे। उन्होंने आवश्यक सूत्र की पुस्तक खोल कर स्वामीजी को बताया - "यह देखो ! इसमें लिखा है - कायोत्सर्ग का भंग करके भी विल्ली से चूहे को बचाना चाहिए ।' तब स्वामीजी ने जब वे उनके सम्प्रदाय में थे, तब सम्वत् १८११ में लिखी हुई आवश्यक की प्रति निकाल कर उन्हें बताई और उन्होंने कहा- "यह प्रति मैंने आपकी प्रति को देखकर लिखी है। इसमें तो वह अर्थ लिखा हुआ नहीं है ।" तब आचार्य रुघनाथजी बोले- हमने तो दूसरों की प्रति को देखकर यह अर्थ लिखा है ।" तब स्वामीजी बोले – “ऐसा झूठा अर्थ क्यों लिखना चाहिए ?" तब "पोतियाबन्ध" साध्वियां बोलीं- "हमारे पात्र से गर्म जल लो और उन पन्नों को जल में भिगो कर गला ।" तब आचार्य रुघनाथजी मौन रहे। जिन-मार्ग का उद्योत हुआ। बहुत लोगों ने तत्व को समझा । २६८. मूल तत्त्व तो समझ में आ गया कोई आदमी स्वामीजी से चर्चा कर रहा था । मूल तस्व तो उसकी समझ में आ गया, फिर भी वह बोला – “आप कहते हैं वह बात तो ठीक है, पर कुछ विषय पूरी तरह से समझ में नहीं आते ।”
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy