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________________ २२० भिक्खु दृष्टां शिक्षा-पद २५४. पांच रुपयों का कहीं पता ही नहीं चलता सुपात्रदान की कला सिखाने के लिए स्वामीजी ने शिक्षा वचन कहा - " किसी गांव में साधुओं ने चतुर्मास किया। एक दिन के अन्तराल से साधु गृहस्थ के घर भिक्षा के लिए जाए तो चार मास में दो मास जाना होता है। भिक्षा के दिन प्रति बार कोई पाव-पाव घी का दान दे, तो चतुर्मास में लगभग पन्द्रह सेर घी होता है। उसकी कीमत चार-पांच रुपए होती है। उस दान में उत्कृष्ट रसानुभव होता है, तो उत्कृष्टतः तीर्थंकर - गोत्र-कर्म का बन्ध होता है । कोई व्यक्ति अनेक संसार भ्रमण के अनेक भवों को कम कर देता है । और छह काय की प्रतिपालना करने वाले मुनि की शारीरिक आवश्यकता पूर्ति होती है । गृहस्थ के मृत्यु भोज, विवाह आदि प्रसंगों में अनेक रुपए लगते हैं, उनमें पांच रुपयों का तो कहीं पता ही नहीं चलता ।" श्रावकों को तारने के लिए स्वामीजी ने यह शिक्षा दी । २५५. बेचारे का जन्म बिगड़ जाता है किसी साहूकार ने मृत्यु भोज किया । उसने अनेक गांवों को न्योता दिया। लोगों के भोजन करते समय कुछ सामग्री कम हो गई । दूसरे गांवों से जो आए थे, उन्होंने थोड़ी देर भोजन नहीं किया और कहा - "बड़े मृत्यु-भोजों में ऐसे ही होता आया है। कभी घट जाता है, कभी बढ जाता है।" उन्होंने फिर कहा---" घड़ी दो घड़ी बाद भोजन कर लेंगे, कोई खास बात नहीं ।" एक आदमी उस साहूकार का विरोधी था । वह बाजार में आ, गद्दे पर लेट गया और कहने लगा-' - "मृत्यु-भोज बिगड़ गया रे, बिगड़ गया ।" तब किसी ने पूछा - " इस भोज की प्रारम्भिक सामग्री जुटाने में तो तुम भी साथ रहे होंगे ? फिर वह सामग्री घटी क्यों ? " तब वह बोला--" नहीं साह ! मुझे पूछा भी कब था ? यदि मुझे पूछा होता, तो सामग्री कम ही क्यों होती और भोज बिगड़ता ही क्यों ? " फिर उससे पूछा गया - " -"तुमने भोजन किया या नहीं ? तब बोला - " मैंने तो खूब डट कर खाया है। मैं तो पहले ही जानता था कि इसके सामग्री कम हो जाएगी।" अब स्वामीजी बोले – “ऐसे कुपात्र पुरुषों का पोषण करने से भोज क्या बिगड़ता है, बेचारे भोज करने वाले का जन्म भी बिगड़ जाता है । २५६. और भी बहुत विषय है आमेट में पुर के भाई-बहिन वंदना के लिए आए। परस्पर की चर्चा में छह पर्याप्तियां और दस प्राण जीव हैं या अजीव ? तब किसी ने कहा - " "जीव हैं", किसी ने कहा "अजीव हैं।" इस प्रकार परस्पर बहुत खींचातान करने लगे। बाद में स्वामीजी के पास आकर पृच्छा की - "महाराज ! १ उस समय का मूल्य है । पूछा गया
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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