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________________ २१९ दृष्टांत : २५२-२५३ रावल (खेल करने वाली टोली) ने खेल तमाशा शुरु किया।" ___ तब साहूकार ने उन्हें बरजा- इस स्थान पर तुम तमाशा मत करो। तुम अश्लील बोलते हो । हमारे घर की बहु-बेटियां सुनती हैं। इसलिए तुम हमारी हवेली के सामने तमाशा मत करो। इस प्रकार सेठ ने उन्हें समझाया, पर उन्होंने सेठ को बात नहीं मानी। तमाशा शुरु कर दिया। बहुत लोग इकट्ठे हुए। रावल तान बजा रहे थे। तब साहूकार ने अपनी हवेली पर नगाड़ों की जोड़ी चढाई और बच्चों से कहा'नगाड़े बजाओ।' तब बच्चे नगाड़े बजाने लगे। खेल में भंग हो गया। लोग बिखर गए । रावलों को दान भी नहीं मिला। उनकी भद्दी भी लगी। "इसी प्रकार कोई न्याय की सीख न माने, अन्याय करे, तब बुद्धिमान अपनी बुद्धि के द्वारा उसे हतप्रभ कर देता है, कला और चातुर्य के द्वारा उसे पाठ पढा देता २५२. मैं भी मनुष्यों को इकट्ठा करूं साधु व्याख्यान देते हैं, वहां बड़ी परिषद् और बड़े उपकार को देखकर अमुक संप्रदाय के साधु और उनके श्रावक साधुओं की निंदा कर लोगों को इकट्ठा कर लेते हैं। उस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया "किसी साहूकार की दुकान पर बहुत ग्राहकों और भीड़ को देखता है, वह उस दिवालिए पड़ोसी को अच्छा नहीं लगता। उसने सोचा-'इसकी दुकान पर इतनी भीड़ है, तो मैं भी मनुष्यों को इकट्ठा करूं ।' यह सोच कपड़ों को डाल, नंगा हो नाचने लगा। तमाशा देखने के लिए बहुत लोग इकट्ठे हो गए। तब वह मन में राजी हुआ।" . इसी प्रकार साधुओं के पास बड़ी परिषद् देखते हैं, वह अमुक संप्रदाय के साधु और श्रावकों को अच्छा नहीं लगता। तब वे भी कदाग्रह-वाद-विवाद खड़ा कर मनुष्यों को इकट्ठा कर लेते हैं। २५३. तू भगवान का स्मरण कर सं० १८५५ की घटना है । पाली चतुर्मास में खेतसीजी स्वामी के रात के समय दस्त और वमन का प्रकोप हो गया। तब स्वामीजी ने हेमजी स्वामी को जगाया और खेतसीजी स्वामी रास्ते में मूच्छित होकर गिर गए थे, उन्हें दोनों हाथ पकड़ कर ले आए । स्वामीजी बोले-"संसार की माया विचित्र है। खेतसीजी जैसा (मजबूत आदमी) ऐसे हो गया।" खेतसीजी स्वामी को सुला दिया और सिरहाने में से नई चादर निकाल उन्हें ओढा दी। थोड़ी देर बाद वे सचेत हो गए, बोलने लगे। उन्होंने कहा-"आप रूपांजी को अच्छी तरह पढाना।" तब स्वामीजी बोले-"तू तो भगवान् का स्मरण कर। रूपांजी की चिंता क्यों करता है ?"
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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