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________________ दृत्टांत : १४९ १८१ जीवित रहे, इसलिए वे भी हर्षित हुए। (३) एक पुरुष था परस्त्री का लंपट । उसने साधुओं के पास परस्त्री गमन से होने वाले पाप को सुना और उसे त्याग दिया। वह बहुत प्रसन्न हुमा और उसने साधुओं का गुणानुवाद किया-मैं संसार समुद्र में डूब रहा था, आपने मुझे तार दिया। आपने मुझे नरक में जाते हुये को बचा लिया। उस स्त्री ने सुना कि मेरे प्रेमी ने शीलवत स्वीकार कर लिया है, तब वह उसके पास आकर बोली-मैं तो तुम्हारे साथ इकतारी किए हुये बैठी थी। सो या तो मेरा कहना मानो, मेरे साथ गृहवास करो अन्यथा मैं कुएं में गिर जाऊंगी। तब उसने कहा--मुझे साधुओं ने परस्त्री गमन का बहुत पाप बतलाया, इसलिए मैंने उसका त्याग कर दिया। अब मुझे तुमसे कोई काम नहीं है । तब वह स्त्री क्रोध के भावेश में आ कुएं में गिर गई। ___ तात्पर्य की भाषा में चोर प्रतिबुद्ध हुये और दुकानदार का धन बच गया; कसाई प्रतिबुद्ध हुआ और बकरे बच गए, व्यभिचारी पुरुष ने शील स्वीकार किया, स्त्री कुएं में गिर गई । साधुओं ने चोर, कसाई और व्यभिचारी-तीनों को पाप से बचाने के लिए उपदेश दिया। उन तीनों को साधुओं ने तार दिया। वे तीनों तर गए । उसका साधुओं को धर्मलाभ हुआ। दूकानदार का धन बचा, बकरों का जीवन बचा-उसका धर्म और स्त्री कुएं में गिर गई उसका पाप साधुओं को नहीं लगता। ___कुछ अज्ञानी कहते हैं---जीव बचे और धन बचा उससे उसे धर्म होता है तो उसकी मान्यता के अनुसार स्त्री मर गयी उसका पाप भी उसे लगेगा। १४६. यत्न दया का या चींटी का ? किसी ने कहा-जीव बचा वह भी धर्म है । तब स्वामीजी बोले-कोई चींटी को चींटी जानता है वह ज्ञान है या चींटी ज्ञान तब वह बोला-कोई चींटी को चींटी जानता है वह ज्ञान है । फिर स्वामीजी ने पूछा- चींटी को चींटी मानता है वह सम्यक्त्व है या चींटी सम्यक्त्व है ? तब वह बोला -चींटी को चींटी मानता है वह सम्यक्त्व है। फिर स्वामीजी ने पूछा-चींटी को मारने का त्याग किया वह दया है या चींटी बची वह दया है ? तब वह बोला-चींटी बची वह दया है। तब स्वामीजी बोले-चींटी हवा से उड़ गई तो क्या उसकी दया भी उड़ गई ? तब वह विमर्शपूर्वक विचार कर बोला-चींटी मारने का त्याग किया वह दया, चींटी बची वह दया नहीं। तब स्वामोजी बोले-यत्न दया का करना चाहिये या चींटी का करना चाहिए? तब वह बोला-यत्न दया का करना चाहिए।
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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