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________________ दृष्टांत : १३९-१४० १७७ इसी प्रकार छह काय जीवों को मारने वाले का पोषण करता है उसे भी छह काय के जीवों का दुश्मन मानना चाहिए क्योंकि उसने दुश्मन का सहयोग किया है इसलिए। १३६. धर्म कहां से होगा? किसी ने खेत बोया। फसल पकने को आई इतने में उसके मालिक के नेहरुमा निकल आया। तब किसी ने दवा देकर उसे स्वस्थ बना लिया। वह स्वस्थ हुआ तब उसने फसल काटी । साहाय्य करने वाले को भी हिंसा का पाप लगा । इसी प्रकार हिंसा करने वाले का साहाय्य करने पर धर्म कहां से होगा ? १४०. मोक्ष का उपकार करने वाला महान् होता है किसी राजा ने दस चोर पकड़े। उन्हें मारने का आदेश दिया । तब एक साहूकार ने प्रार्थना की-महाराज ! यदि आप चोरों को मुक्त कर दें तो मैं प्रत्येक चोर के बदले में पांच सौ-पांच सौ रुपये दूंगा। राजा ने कहा- चोर बहुत दुष्ट हैं । वे छोड़ने के योग्य नहीं हैं । साहूकार ने फिर कहा- यदि आप सबको मुक्त न करें तो नौ चोरों को तो छोड़ राजा ने उसकी बात नहीं मानी। इसी प्रकार साहूकार ने बहुत प्रार्थना की। तब पांचसौ रुपये लेकर एक चोर को छोड़ दिया। नगरी के लोग साहूकार को धन्यधन्य कहने लगे। उसका गुणानुवाद किया-इसने चोर को छुड़ा कर बहुत उपकार किया है । चोर भी बहुत प्रसन्न हुआ । उसने सोचा-साहूकार ने मेरे पर बहुत उपकार किया है। अब चोर ने अपने घर जाकर चोरों के सगे-संबंधियों को सारे समाचार सुनाए । वे सारी बातें सुन बहुत रुष्ट हुए । वह चोर उन्हें साथ ले आया। शहर के दरवाजे पर एक पत्र टांग दिया । उसमें लिखा था -नौ चोरों को मारा गया है, उनका प्रतिशोध लेने के लिए नौ के ग्यारह गुना--९९ व्यक्तियों को मारने के बाद समझौता कर लूंगा । साहूकार को नहीं मारूंगा। साहूकार के बेटे, पोते और सगे-संबंधियों को भी नहीं मारूंगा। इस सूचना के बाद वह मनुष्यों को मारने लगा। किसी के बेटे को मारा, किसी के भाई को मारा, किसी के पिता को मारा। नगर में हाहाकार हो गया । नगरी के लोग साहूकार की निन्दा करने लगे। उसके घर जाकर रोने लगे। रे पापी ! यदि तुम्हारे घर में धन अधिक था तो उसे तुमने कूए में क्यों नहीं डाला? तुमने चोर को छुड़ा हमारे परिवार के लोगों को मरवा दिया। साहूकार उद्विग्न हो गया । वह शहर को छोड़ दूसरे गांव में जाकर बस गया। बहुत दुःखी हुआ। जो लोग उसके गुण गाते थे वे ही उसके अवगुण गाने लगे। संसार का उपकार ऐसा है। मोक्ष का उपकार करने वाला महान होता है। उसमें कोई खतरा नहीं है।
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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