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________________ वरंगचरिउ 73 धर्मसेन - उत्तम प्रजापालक एवं अधिपति धर्मसेन थे, जो भोजवंश के अद्वितीय नक्षत्र थे । उनमें वीरता, साहस, धार्मिक, पुत्रस्नेह एवं दयालुता आदि अनेक गुणों का सद्भाव था । वे कुमार वरांग के पिता थे, जो कुमार को बहुत ही स्नेह किया करते थे । कुमार के खो हो जाने पर वे बहुत अधिक शोकातुर हो जाते हैं, जिसका तेजपाल ने अत्यन्त मार्मिक वर्णन किया है— I हे पुत्र ! तुम्हारे बिना कौन सहारा है, शोक से उठते और गिरते हैं, तुम्हारे बिना घर आंगन सूना है, तुम्हारे बिना कौन शत्रुराजा और सेना का संहार करेगा, तुम्हारे बिना कौन दुर्जनों को आतापित करेगा। यहां तक कहा है कि नयनों से जो आंसू बह रहे हैं, मानो विधाता ने झरने का निर्माण किया हो। तुम्हारे बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता है, तुम्हारे बिना ताम्बूल का लेपन दाह की तरह अति वेदना देता है, ' पुनः जब कुमार वरांग घर पर वापिस आता है, तब पुनः उसको राज्याभिषेक देने को तैयार हो जाते हैं । IX. प्रकृति-चित्रण प्रकृति मानव की जन्म से ही सहचारिणी है। प्रकृति सदा ही उसे निष्कलुष एवं असीम-सुषमा का उन्मुक्त वातावरण प्रदान करती रही है। प्रकृति मनुष्य के लिए अपना सब कुछ समर्पित करती रही है। हम प्रकृति की गोद में जन्म लेते हैं और जीवन पर्यन्त उसके प्रतिक्षण नवीन लगने वाले सौन्दर्य को देख-देखकर प्रेरित और भावित हुआ करते हैं। प्राचीन भारतीय कवियों की कृतियों में प्रकृति के विविध रूपों का अत्यन्त मार्मिक चित्रण मिलता है। इसी परम्परा में वरांगचरिउ में भी सामान्य रूप से प्रकृति चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ में कवि ने प्रसंगवश नगर, नदी, तालाब, समुद्र एवं वृक्ष आदि का वर्णन किया है, जो प्रकृति अंग है। मुनिराज की तपस्या प्रसंग में षट्ऋतु का नाम दिया है। वहां कहा है कि मुनिराज छह ऋतुओं में कैसे तप-तपते हैं । यथा हिमसिसिरवसंतइ गिंभयालि, अण्णु वि वरसालइ सद्दयालि । सुह भुंजइ अंतेवर समाणु, जिणधम्म कुणंतउ णयपमाणु ।। (वरंगचरिउ 4/16) 1. वरांगचरिउ, कडवक-3/2
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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