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________________ मन्तव्य शोधकार्यों में पाठ-सम्पादन का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, पर श्रमसाध्य है। पाण्डुलिपि सम्पादन मौलिक कार्य है। इस कार्य की प्रेरणा मुझे कई विद्वानों से प्राप्त हुई। प्राकृत एवं जैनागम विषय से एम.ए. उत्तीर्ण करने के बाद जब मुझे शोधकार्य करने का विकल्प मन में आया, तब अनेक विद्वानों से विषय-चयन के लिए मैंने सम्पर्क किया एवं उनसे पाण्डुलिपि सम्पादन के क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। प्राकृत एवं जैनागम विभाग की ओर से भी इस तरह कार्य करने की प्रेरणा एवं उत्साह ने मुझे और अधिक मजबूत और दृढ़ कर दिया कि मैं पाण्डुलिपि के सम्पादन कार्य से जुहूं. और इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर मैंने जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के पाण्डुलिपि-केन्द्र सहित L.D. Institute of Indology,Ahmedabad, B.L. Institute of Indology, New Delhi, National Prakrit Studies & Research Institute, Shravanabelagola, पाटन ग्रंथभण्डार, ऐलक पन्नालाल शोध संस्थान, ब्यावर, हर्षकीर्ति शास्त्र भण्डार, अजमेर, पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर, करौली, सरस्वती भवन, नागौर, श्री महावीरजी ग्रन्थ भण्डार, श्रीमहावीरजी और अपभ्रंश-अकादमी, जयपुर आदि ग्रन्थ भण्डारों का भ्रमण किया। जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के पुस्तकालय में जैसलमेर ग्रन्थ संग्रह-सूची, राजस्थान के जैन ग्रन्थभण्डार सूची, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर आदि अनेक ग्रंथ-सूचियों का अवलोकन किया। अनेक ग्रन्थ-सूचियों का अवलोकन करने के बाद जब मुझे ज्ञात हुआ कि 'वरंगचरिउ' पर अभी तक काम नहीं हुआ है, तब मैंने वरंगचरिउ का पाठ-सम्पादन के लिए चयन किया और जैन विश्वभारती संस्थान में प्राकृत एवं जैनागम विभाग में इस शोधकार्य से जुड़ा। इस तरह तीन वर्षों तक लगातार शोधकार्य करता रहा, जिससे यह कार्य अपनी अन्तिम परिणति को प्राप्त कर सका। सम्पादन को सकारात्मक बनाने के लिए भूमिका भी लिख दी गई है, जिससे पाठकों को यह ग्रंथ समझने में सरलता हो। भूमिका का प्रारम्भ 'अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य की परम्परा तथा वरंगचरिउ : एक परिचय' से हुआ है, जिसमें भाषा-विकास की अविच्छिन्न धारा' पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही भाषा परिवार का विभाजन, अपभ्रंश भाषा एवं उसका संक्षिप्त ऐतिहासिक परिचय, अपभ्रंश साहित्य के अन्तर्गत अपभ्रंश का काल विभाजन, अपभ्रंश भाषा के प्रकार, आधुनिक वर्गीकरण एवं अपभ्रंश भाषा का साहित्यिक वर्गीकरण का भी विवेचन किया गया है। भूमिका के ही अंतर्गत 'वरंगचरिउ' एक परिचय में प्रति-परिचय, ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार का परिचय, कथा का विकास एवं वरंगचरिउ की मूलकथा, वरंगचरिउ की परम्परा, तेजपाल के
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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