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________________ वरंगचरिउ कवि नयनन्दी ने अपने 'सकलविधि विधान काव्य' में 62 मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया है। इससे प्रमाणित होता है कि नयनन्दी छन्दशास्त्र के महान वेत्ता थे। कवि श्रीचन्द्र ने ‘रयणकरण्ड सावयायार' की 12वीं संधि के तीसरे कडवक में कुछ अपभ्रंश छन्दों का नामोल्लेख किया है। णिरयाल, आवली, चर्चरीरास रासक, ध्रुवक, खंडय उपखंडय घत्ता, वस्तु, अवस्तु, अडिल, पद्धडिया, दोहा, उपदोहा, हेला, गाहा, उपगाहा आदि छन्दों के नाम दिये हैं ।' कवि लक्ष्मण ने अपने 'जिनदत्तचरिउ' की चार संधियों में वर्णवृत्त और मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है उनके नाम निम्न प्रकार हैं: 64 विलासिणी, मदनावतार, चित्रगया, मोत्तियदाम, पिंगल, विचित्तमणोहरा, आरणाल, वस्तु, खंडय, जंभेटिया, भुंजगप्पयाउ, सोमराजी, सग्गिणी, पमाणिया, पोमिणी, चच्चर, पंचचामर, णराच, निभंगिणिया, रमणीलता, चित्तिया, भमरपय, मोणय, अमरपुर, सुन्दरी और लहुमत्तिय आदि । 2 अपभ्रंश में अनेक छन्द ग्रंथ लिखे गये, परन्तु आज उपलब्ध नहीं हैं । मात्र एक ही स्वयंभू का छन्द ग्रंथ प्राप्त होता है, जो अपभ्रंश की महत्त्वपूर्ण देन है। इस ग्रंथ में कुल 8 अध्याय है। इसके प्रथम तीन अध्यायों में प्राकृत के वर्णवृत्तों का और अन्त के 5 अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का कथन किया गया है और छन्दों के उदाहरण पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं एवं स्वोपज्ञ ग्रंथों से भी दिये है । वरंगचरिउ में मुख्यतः तीन प्रकार के छंदों का प्रयोग किया गया है, जो छन्द-प्रवृत्ति सामान्य रूप से अपभ्रंश काव्यों में पाई जाती है। अर्थात् कडवक के प्रारंभ में दुवई (द्विपदी), मध्य में यमक रूप में अधिकांशत: पद्धडिया (पज्झटिका) एवं अन्त में घत्ता छन्द पाया जाता है, जो इस प्रकार है दुवई (द्विपदी) - इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ पाई जाती हैं, यथा मुमि कुवणु ताउ तुह केरउ मायरि कवण जायउ । को वरणयरू वप्पकमलाण ण कहि कारणि परायउ ।। (वरंगचरिउ, 2 / 12 ) पद्धडिया इसे अपभ्रंश काव्य का प्रमुख छन्द कहा गया है। इसके प्रत्येक चरण में चार चतुर्मात्रिक गण अर्थात् सोलह मात्राएं होती हैं, जिनमें अन्तिम मात्राएं जगण ( 151 ) होती है। वरंगचरिउ में अधिकांशतः इसका प्रयोग हुआ है, यथा 1. छंदणिरयाल आवलियहिं, चच्चरि रासय रासहि ललियहिं । वत्थु अवत्थू जाइ विसेसहिं, अडिल मडिल पद्धडिया अंसहि । दोहय उवदोहय अवभंसहिं, दुवई हेला गाहु व गाहहिं । धुवय खंड उवखंडय घत्तहिं सम - विसमद्ध समेहिं विचित्तहिं । । - रयणकरंड सावयायार, 12वीं संधि, कडवक-3 2. जैनग्रंथ प्रशस्ति सं., पृ. 35 3. वही, पृ. 36
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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