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________________ वरंगचरिउ पंचास्तिकाय की एक पाण्डुलिपि सा. धौपाल द्वारा भेंट की गई थी। - ब्रह्म साधारण अपभ्रंश भाषा के विद्वान् थे। छोटी-छोटी कथाओं की रचना करके वे श्रावकों को स्वाध्याय की प्रेरणा दिया करते थे। 15वीं-16वीं शताब्दी में भी अपभ्रंश भाषा की रचनाओं का निबद्ध करना उनके अपभ्रंश प्रेम का द्योतक है। अब तक उनकी 9 रचनाएँ उपलब्ध हो चुकी है 1. कोइलपंचमीकहा (कोकिला पंचमी कथा) 2. मउडसप्तमीकहा (मुकुट सप्तमी कथा) 3. रविवयकहा (रविव्रत कथा) 4. तियालचउबीसीकहा (त्रिकाल चौबीसीकथा) 5. पुयंजलिकहा (पुष्पांजली कथा) 6. निसिसत्तमीवयकहा (निर्दोष सप्तमी व्रत कथा) 7. णिज्झरपंचमीकहा (निर्झर पंचमी कथा) 8. अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) 9. दुद्धारमिकहा (दुग्ध द्वादशी)। उक्त सभी कृतियों में लघुकथाएँ हैं। भाषा अत्यधिक सरल किन्तु प्रवाहमय है। सभी कथाओं में अपनी पूर्ववर्ती परम्परा का उल्लेख किया है तथा कथा समाप्ति की पंक्ति में अपने आपको नरेन्द्र कीर्ति का शिष्य लिखा है।' महीन्दु या महीचन्द ___ कवि महीन्दु या महीचन्द इल्लराज के पुत्र हैं। इससे अधिक इनके परिचय के सम्बन्ध में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। कवि ने 'संतिणाहचरिउ' की रचना के अन्त में अपने पिता का नामोल्लेख किया है भो सुणु बुद्धीसर वरमहि दुहुहर, इल्लराजसुअ णारिवज्जइ। सण्णाणसुअ साहारण दोसी णिवारण वरणरहि धारिज्जइ। पुष्पिका वाक्य से भी इल्लराज का पुत्र प्रकट होता है। ग्रन्थ प्रशस्ति में कवि ने योगिनीपुर (दिल्ली) का सामान्य परिचय कराते हुए काष्ठासंघ के माथुरगच्छ और पुष्करगण के तीन भट्टारकों 1. राजस्थान के जैन शास्त्र ग्रन्थ भण्डारों की ग्रन्थसूची, पंचम भाग, पृ. 72 2. राजस्थानी जैन साहित्य, पृ. 160-161
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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