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________________ वरंगचरिउ 33 कार्य सम्पन्न किया जाता रहा है। उक्त भट्टारक परम्परा के भट्टारक विशालकीर्ति, भट्टारक भुवनकीर्ति, भट्टारक रत्नकीर्ति एवं भट्टारक विपुलकीर्ति को पं. तेजपाल ने अपने ग्रंथ वरंगचरिउ की चतुर्थ संधि के 23वें कडवक में गुरु के रूप में स्मरण किया है । 'पाठ – सम्पादन' पद्धति 1. सामान्य सिद्धांत के रूप में A, K, और N, प्रतियों में पाठों की प्रामाणिकता को ध्यान में रखकर इन प्रतियों के पाठों को ही मूल में स्वीकार किया गया है । परन्तु अर्थऔचित्य तथा व्याकरण एवं छंदशुद्धि की दृष्टि से जहां कहीं भी आवश्यकता महसूस हुई वहां पर तीनों प्रतियों (A, K,N,) में से मात्र A, प्रति का पाठ मूल पाठ में लिया है, क्वचित् अन्य प्रतियों के पाठ को भी स्वीकार किया है। मेरा कहने का अभिप्राय यह है कि A, .को आदर्श प्रति के रूप में रखा है एवं अन्य प्रतियों का मिलान किया है । यद्यपि A, प्रति में भी यदि अर्थ-औचित्य, व्याकरण एवं छंद शुद्धि की अपेक्षा पाठ शुद्ध नहीं हुआ तो अन्य प्रतियों के पाठ को भी मूल पाठ में स्वीकृत किया है। ऐसे समस्त स्थलों में यह पाठ परिवर्तन कहीं भी एक अक्षर, एकमात्रा अथवा एक अनुस्वार से अधिक नहीं किया । 2. न और ण के प्रयोग के सम्बन्ध में यह प्रणाली अपनायी है कि जहां कहीं चाहे आदि में सम्पूर्ण स्थानों पर 'ण' पाठ को ही ग्रहण किया। जैसे - नारि, नारियल प्राप्त शब्दों को र एवं णारियल पाठ ही रखा है। मध्यवर्ती 'न' को कहीं-कहीं 'न' रूप में ही ग्रहण किया है । - गिन्हि (2/12) 3. सभी प्रतियों में लगभग सर्वत्र 'ब' के स्थान व का प्रयोग मिलता है। इस सम्बन्ध में मैंने मूल संस्कृत शब्द के अनुसार, यथा-स्थान ब, व दोनों का प्रयोग किया है। 4. 'हउं' पाठ प्रतियों में कहीं 'हउ', 'हंउ' एवं 'हउं' प्राप्त होता है । मैंने सर्वत्र (सम्पूर्ण प्रति में) 'हउं' पाठ को ग्रहण किया है, जो कि पूर्ण प्रामाणिक एवं शुद्ध है । 5. सभी प्रतियों में प्राप्त तहि, कहिं, जहि आदि पाठ को यथानुसार रखा है। 6. प्रतियों में लिखावट सम्बन्धी भूल प्रायः प्राप्त होती है। जैसे - K, प्रति में 'छ' की बनावट सर्वत्र 'छ' रूप में ही प्राप्त होती है, चाहे संयुक्त अक्षर हो अथवा नहीं हो, वहां यथायोग्य पाठ को लिया है। इसी तरह 'एप्पिणु' प्रत्यय में कहीं 'एपिणु' पाठ प्राप्त हुआ और कहीं 'एप्पिणु' पाठ तो सर्वत्र पाठान्तर लेकर 'एप्पिणु' पाठ को मूलपाठ में रखा है। 7. संयुक्त अक्षर के पूर्व यदि दीर्घ मात्रा का अक्षर विद्यमान रहता है, तो उसको ह्रस्व कर दिया गया है— ‘ह्रस्व संयोगे 84 / 1 ( सिद्धहेम शब्दानुशासन), यथा - साप्पुरिसह (द्वितीय संधि, कडवक-2) के स्थान पर सप्पुरिसह पाठ लिया है।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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