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________________ 18 वरंगचरिउ मोक्ष - फल, मोक्ष-मार्ग, अभेद रत्नत्रय, समभाव, पाप-पुण्य की समानता, शुद्धोपयोग और परमसमाधि का वर्णन किया है। योगसार-यह योगीन्द्र देव की द्वितीय महत्त्वपूर्ण रचना है। इस ग्रन्थ की रचना का प्रयोजन सांसारिक माया से त्रस्त और मोक्ष के लिए उत्सुक प्राणियों की आत्मा को जागृत करने के लिए उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की है। इसमें कुल 108 छन्द हैं । पाहुड़दोहा - पाहुड़ का अर्थ उपहार होता है। इस प्रकार इस ग्रन्थ का अर्थ हुआ दोहों का उपहार। यह अध्यात्मवादी कवि रामसिंह द्वारा विरचित एकमात्र कृति है । इस कृति में आध्यात्मिकता की प्रधानता है । इसका समय 10वीं शताब्दी के निकट माना जाता है, क्योंकि पाहुड़दोहा के उदाहरण आचार्य हेमचन्द्र ने दिये हैं । अतः वह हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। मुक्तक काव्य की दूसरी उपशाखा उपदेशात्मक धारा है। देवसेन, जिनदत्तसूरि और महेश्वरसूरि इस धारा के प्रमुख कवि हैं, जिनकी निम्नलिखित रचनाएं हैं I सावयधम्म दोहा - यह दिगम्बर आचार्य देवसेन द्वारा रचित एक संग्रह कृति है, जिसमें श्रावक-गृहस्थों के नैतिक उपदेश दिये हैं। ये बड़े ही चरित्रवान, संयमी, मितभाषी, लोकहितकाम और उदार व्यक्ति थे। चिन्तनशीलता उनकी प्रकृति थी । वे संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के विशिष्ट विद्वान् थे। इन्होंने तीन भाषाओं में ग्रंथों की रचना की है। संस्कृत में आलापद्धति, प्राकृत में दर्शनसार, तत्त्वसार, आराधनासार और भाव-संग्रह एवं अपभ्रंश भाषा में सावयधम्मदोहा की रचना है। इनका समय 10वीं शताब्दी अनुमानित है। जैन अपभ्रंश साहित्य में प्रबन्ध काव्य पर्याप्त मात्रा में लिखे गये हैं। इसके अंतर्गत प्रमुख कवि - महाकवि स्वयंभू, पुष्पदंत, पद्मकीर्ति, धवल, धनपाल, हरिषेण, वीरकवि, नयनन्दि, कनकामर, रइधू, आचार्य हेमचन्द्र, श्रीचन्द, देवसेनगणि, हरिभद्र, लक्खण, लक्खमदेव, जयमित्रहल और हरिदेव आदि इस धारा के प्रमुख कवि नक्षत्र हैं । पउमचरिउ-यह स्वयंभू की सर्वश्रेष्ठ रचना है। अपभ्रंश साहित्य की परम्परा में स्वयंभू को सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में माना गया है। इन्हें अपभ्रंश का बाल्मीकि कहा गया है और भारत के दर्जन अमर कवियों में एक माना गया है। राहुलजी के अनुसार इन्हें अपभ्रंश का सबसे बड़ा कवि घोषित किया गया है। इनका समय 793ई. के आस-पास है । ' अपने ग्रन्थों में सर्वत्र अपना नाम स्वयंभू दिया है। इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था। पउमचरिउ में इनके शरीर के अंगों का वर्णन करते हुए लिखा है"अइतणुएण पईहरगते छिव्वरणासे पविरल दंते" । 1/3 अर्थात् कवि स्थूलकाय चौड़ी नाक वाला एवं विरल दांतों से युक्त था। इनकी दो पत्नियां अमृताम्बा एवं आदित्याम्बा एवं पुत्र त्रिभुवन, जिसने पिता के अपूर्ण ग्रन्थों को पूर्ण किया था और स्वयं भी कुछ संधियां जोड़ीं। उनकी तीसरी पत्नी का भी अनुमान किया 1. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, पृ. 46
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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