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________________ 16 वरंगचरिउ हेमचन्द्र के समय तक अपभ्रंश ने पूर्ण परिनिष्ठित या परिष्कृत स्वरूप प्राप्त कर लिया था' और इस तरह इसे सभ्यों की भाषा भी स्वीकृत कर लिया गया था। 3. आधुनिक वर्गीकरण आधुनिक युग में अपभ्रंश का वर्गीकरण क्षेत्रीय आधारों पर भी किया गया है। सर गियर्सन के अनुसार सिन्धु नदी के निचले प्रदेश की अपभ्रंश, वाचड थी। नर्मदा के दक्षिण में अरब सागर से उड़ीसा तक, वैदर्भ या दाक्षिणात्य अपभ्रंश से संबंधित अनेक विभाषाएँ रही होंगीं। दाक्षिणात्य के पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक औड्र अथवा औत्कल अपभ्रंश का क्षेत्र था। औड्र के उत्तर में छोटा नागपुर तथा बिहार के अधिकांश भाग, पूर्वी उत्तरप्रदेश के आधे भाग, बनारस तथा मगध तक अपभ्रंश का प्रसार था। यह मुख्य अपभ्रंश थी। मगध के पूर्व में गौड या प्राच्य अपभ्रंश का क्षेत्र था। पूर्वी व पश्चिमी प्राकृतों के बीच में एक मध्यवर्ती प्राकृत भी थी। इसका नाम अर्द्धमागधी था। इससे विकसित अपभ्रंश की वर्तमान प्रतिनिधि भाषा अवध, बघेलखंड तथा छत्तीसगढ़ में बोली जाती है। भीतरी उपशाखा की भाषाओं की आधारभूत भाषा नागर अपभ्रंश थी। यह गुजरात और उसके निकटवर्ती प्रदेशों की भाषा थी। मध्य दोआब में शौरसेनी अपभ्रंश का प्रसार था। उत्तरी मध्य पंजाब में टक्क, दक्षिणी पंजाब में उपनागर, अवन्ती प्रदेश में आवन्त्य, गुजरात में गौर्जर का प्रचार-प्रसार था। . डॉ. यकोबी ने 'सनत्कुमारचरित' की भूमिका में अपभ्रंश के चार भेद किये हैं-उत्तरी, पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमी। इस विभाजन का भाषा-वैज्ञानिक आधार नहीं है। अतः डॉ. तगारे' इस विभाजन को उपयुक्त न मानकर इसका खण्डन करते हैं और इस भाषा का विभाजन तीन प्रकार से करते हैं-पूर्वी अपभ्रंश, पश्चिमी अपभ्रंश एवं दक्षिणी अपभ्रंश। पूर्वी अपभ्रंश के अंतर्गत सरह आदि के दोहाकोश एवं चर्यापदों की भाषा आती है। दक्षिणी अपभ्रंश में पुष्पदंत का महापुराण, णायकुमारचरिउ तथा मुनि कनकामर के करकंडुचरिउ की भाषा है। पश्चिमी अपभ्रंश की रचनाओं में कालिदास, जोइन्दु, धनपाल की रचनाएँ. तथा हेमचन्द्र के व्याकरण के दोहे हैं। 4. अपभ्रंश भाषा का साहित्यिक वर्गीकरण एवं संक्षिप्त परिचय ___अपभ्रंश काव्य साहित्य में जीवन और जगत की अनेक भावनाओं और विचारों की वाणी मिलती है। यदि एक ओर इसमें जैन मुनियों के चिंतन की चिन्तामणी है तो दूसरी ओर बौद्ध सिद्ध की सहज साधना की सिद्धि भी है। यदि एक ओर धार्मिक आदर्शों का व्याख्यान है तो दूसरी ओर लोक-जीवन से उत्पन्न होने वाले ऐहिक रस का राग-रंजित अनुकथन भी है। यदि यह साहित्य नाना शलाका पुरुषों के उदात्त जीवन चरित से सम्पन्न है तो सामान्य वणिक पुत्रों के सुख-दुःख की कहानी से परिपूर्ण भी है।' 1. तगारे, हिस्टॉरिकल ग्रेमर ऑफ अपभ्रंश, पृ. 32. अपभ्रंश भाषा और व्याकरण-पृ. 49-50 सर जार्ज गियर्सन, भारत का भाषा सर्वेक्षण, पृ. 245-249 3. तगारे, हिस्टॉरिकल ग्रामर ऑफ अपभ्रंश, पृ. 16 4. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृ. 179
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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