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________________ वरंगचरिउ उद्योतनसूरि ने देशी भाषा अपभ्रंश की अठारह विभाषाओं का सोदारहण उल्लेख किया है। ये अठारह विभाषाएँ इस प्रकार हैं-गोरल, मध्यदेश, मगध, अन्तर्वेद, कीर, टक्क, सिन्ध, मरू, गुर्जर, लाट, मालव, कर्णाटक, तमिल, कोसल, महाराष्ट्र, आन्ध्र, खस, पारस और वव्वर ।' प्राकृतानुशासन (12वीं सदी) में अपभ्रंश को शिष्टों के प्रयोग से जानने की सलाह देते हुए अपभ्रंश के तीन भेदों का उल्लेख किया है-1. नागरक, 2. वाचड, 3. उपनागरक। साथ ही पंचालदिकों को सूक्ष्मान्तर और लोकगम्य बताकर वैदर्भी, लाटी, लट्ठी, कैकयी, गौड़ी आदि की भेदक विशेषताओं का भी संक्षेप में उल्लेख किया है। इसी प्रकार टक्क, वव्वर, कुन्तल, पाण्डि, सिंघलादि भाषाओं की ओर भी इंगित किया है।' रामशर्मा तर्कवागीश ने 'प्राकृतकल्पतरू' के द्वितीय स्तवक में नागर अपभ्रंश के अनेक नियमों को बताया है। साथ ही तृतीय स्तवक में सिन्धुदेश में प्रसिद्ध व्राचड अपभ्रंश का उल्लेख किया है। उन्होंने उपनागर में नागर और वाचड को मिश्र रूप स्वीकार किया है। टक्की को भी उन्होंने इन तीनों का मिश्रण माना है। उन्होंने इन्हीं तीनों का 20 भेदों में भी उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं-पांचालिका, मागधी, वैदर्भिका, लाटी, ओड्री, कैकेयिक, गौडी, कौन्तली, पाण्डी, सैंहली, कलिंगजा, प्राच्या, आभीरिका, कर्णाटिका, मध्यदेश्या, गौर्जरी, द्राविड़ी, पाश्चात्यजा, वैतालिकी और कांची और उन्होंने यह भी कह दिया कि इसके भेद अति दुर्विकल्प हैं।' मार्कण्डेय के अनुसार 'प्राकृत सर्वस्व' में अपभ्रंश के 27 भेदों को गिनाया है-वाचड, लाट, वैदर्भ, उपनागर, नागर, वार्बर, आवन्त्य, मागध, पांचाल, टक्क, मालव, कैकय, गौड़, औड्र, वैवपाश्चात्य, पाण्ड्य, कौन्तल, सैंहल, कलिंग, प्राच्य, कार्णाट, कांचय, द्राविड़, गौर्जर, आभीर, मध्यदेशीय और वैताल । मार्कण्डेय द्वारा नमिसाधु से भिन्न तीन मुख्य भेदों का उल्लेख किया गया है-'नागरोवाचडश्चोपनागरश्चेति त्रयः । ___ उक्त वर्गीकरण में नमिसाधु एवं मार्कण्डेय का वर्गीकरण विचारणीय है। नमिसाधु का उप -नागर से तात्पर्य वही है जो मार्कण्डेय का नागर अपभ्रंश से है। सामान्यतः यह परिनिष्ठित अपभ्रंश है, किन्तु नमिसाधु ने उपनागर का लक्षण बताते हुए एक स्थान पर "अभूतोऽपिक्वाप्यधोरेफः क्रियते" का विधान किया है और उदाहरण स्वरूप "वाचालउ वचवचक्रार वक्रूखीत्यादि" को रखा है। मार्कण्डेय ने नागर अपभ्रंश के लिए तीन पाद (17, 18 और 19) वाचड के लिए 11 सूत्र और उपनागर के लिए केवल एक सूत्र का विधान किया है।' वाचड को मार्कण्डेय ने सिन्धुदेशोद्भव कहा है तथा उपनागर को नागर और वाचड का संकर।" 1. कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन, प्रेमसुमनजी, पृ. 256 2. (क) पुरुषोत्तम, प्राकृतानुशासन, 18/1-13, 18/16-23 (ख) अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, पृ. 48 3. पराप्यभ्रंशभिदास्ति तत्तदेशीय भाषापद समप्रयोगात्। न सा विशेषादिह सम्प्रदिष्टा भेदो यदस्यामतिर्विकल्पः ।। प्राकृतकल्पतरु, 3/3/13 4. प्राकृत सर्वस्व, 4 और 10, 5. अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, पृ. 49. 6. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृ. 50
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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