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________________ वरंगचरिउ 209 पालन करते हैं, दस प्रकार के धर्म को कभी भी नहीं छोड़ते हैं अर्थात् हमेशा धारण करते हैं, ग्यारह प्रतिमा के गुण कहते हैं। बारह प्रकार के तप पूर्वक जिनका आहार होता है, तेरह प्रकार का चारित्र भी पालन करते हैं, आत्मा का ध्यान करके पुराने दोषों का अभाव करते हैं। घत्ता-इस प्रकार मुनि वरांग तप को तपते हुए, पृथ्वी का निवारण करते हुए, अंत समय : जानकर, योग को दृढ़ता से धारण करके, अनसन (उपवास) लेकर, शुक्लध्यान प्राप्त करते हैं। 23. मुनि वरांग का सर्वार्थसिद्धि गमन पंडित-पंडित मरण करके, चतुर्गति के दुःख का संसारी प्राणियों को उपदेश देकर वह मुनिवर सर्वार्थसिद्धि गये। वहां विपाक (कर्म का फल) भोगकर, फिर मनुष्य होकर पृथ्वी का परिपालन करके पुनः तप लेकर, निश्चय रत्नत्रय धारण कर, पश्चात् वह मुनि शिवपुरी (मोक्ष) जायेंगे। सागरबुद्धि श्रेष्ठी और मंत्री आदि भक्ति से चारों भी स्वर्ग गये। जिनदेव के चरणों में वरांग की स्त्री भी मरण प्राप्त करके अंतकाल में जिनेन्द्र देव को स्मरण करके, अपने धर्म के अनुसार गति प्राप्त की। जैसे-तैसे भव्यता को प्राप्त किया। दूसरे भी जो जिनशासन के भक्त हैं, वह दोषों (मल) का त्यागकर शुभगति को प्राप्त करते हैं। जो सम्यक्त्व, शील और व्रतों को धारण करता है वह भवसागर से स्वयं ही तिरता है। ___ अलग पन्द्रह सौ वर्ष क्षीण होते हैं और फिर सौ के आगे सात कहे हैं। वैशाख कृष्ण की सप्तमी के दिन पूर्ण किया। अर्थात् संवत् 1507 में वैशाख कृष्ण की सप्तमी के दिन ग्रन्थ पूर्ण हुआ। जो सुख और मधुर खिला हुआ है। ___ मुनिवर विपुलकीर्ति के प्रसाद एवं जिनभक्ति के अनुराग से रचना की है, जो मूलसंघ गुणों के समूह से घिरे रहते थे, ऐसे रत्नकीर्ति आचार्य हुए, भुवनकीर्ति उनके शिष्य हुए। क्षमावान और दयावान के गुणों से मुनि व्याख्यात थे। उनके पट्ट में इस समय धर्मकीर्ति श्रेष्ठ मुनिवर बैठे हुए थे। उनके गुरु निर्मल गुणों को धारण करने वाले तप युक्त मुनि विशालकीर्ति थे। वह हमारे गुरु है, जिनसे मैंने करण बुद्धि प्राप्त की। सरोवर प्रिय वासवपुर प्रसिद्ध है जो धन-धान्य स्वर्ण और वैभव से समृद्ध है, जिस श्रेष्ठ नगर में सावडवंश बड़ा था, उसमें जाल्हव नाम का वणिक साहू था, उसका पुत्र सुजड साहू जो दयावान और जिनधर्म में अनुरक्त रहते हुए शोभित था, उसके पुत्र जो कुल के उद्धारक थे,
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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